पृष्ठ:हिंदी शब्दसागर (भाग 2).pdf/१८५

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औद्भाना ६६६ मोदी ओढाना-क्रि० स० [हिं० ओढ़ना] ढाँकना । कपड़े से आच्छादित ओतारा--साम्रा पुं० [स० अवतरण, हिं० उतारा] दे० 'उतारा' । करना । उ०—(क) कामरी ओढ़ाय कोऊ साँवरो कुवर मोहि उ०—-पेखे पुर वासियाँ, घणी अजीत धरा रौ । जादम गायद वाह गहि लायो छाँह वह को पुलिन् ते 1-देव (शब्द॰) । तणे, वाग की ओतारी ।-राज० ११०, पृ० ३५१1 (ब) नीरा चौंककर उठी और एक फटा सा केवल डेम श्रोताल -क्रि० वि० [सं० उद् +त्वर] शोन्न । जल्दी । उ०—बुड्ढ़े को ढोने लगी ।अधी, पृ० १०७ ।। पडही लहाँ मिल पगा, त्य हुँदा श्रोताल ।-वकी० प्र० ढोनी, प्रोढ़ौनी -संज्ञा स्त्री॰ [हिं० शोढना] दे० 'क्रोढ़नी' । भा० ३, पृ० ६६ ।। उ०—यूरि कार की पुरि बिलोचन सूघि सरोरुह ग्रोढि -तू-संज्ञा पुं० [सं०] १ ताना। २ विडाल । मजार [को०] । अदोनी 1-केशव ग्र०, भा० १, पृ० १६६ । ओतु-सज्ञा स्त्री० [सं०] बिल्ली ।। श्रोत–चा स्त्री० [अ० अरवि पु० हि प्रव, चि] १ कष्टे ओत-सज्ञा पुं० [सं० ओतु ओतु। ताना। उ०—'वुनने को करधी की कमी । प्ररिराम । चैन । उ०--(क) नाना उपचार करि हारे तैसर कहलाती थी, ताना 'तू' और बाना तंतु' कहलाता सुर सिद्ध मुनि, होत न विसोक त पावे न मनाक सो। था' [- हिंदु सभ्यता, पृ० ७९ । -नुलसी ग्रं॰, पृ० १७७ ! (ख) भली वस्तु नागा लगे काहू ग्रोतो+--वि० [हिं०] दे॰ 'ग्रोना' । भाँति न त । उद्वेग सुवस्तु अरु देश काल तें होन। प्रोत्ता'- वि० [हिं०] ३० 'आता' या 'उतना' । -देव (शब्द॰) । २ ग्रालय ! ३. कि हायव । अता--संज्ञा पु० [सं० अवस्था] उन परे । पाया जिसपर दरी क्रि० प्र० - पड़ना। बुननेवाले वैठते हैं ! ओत--ज़ा धी- [सं० अवाप्नि या हि अवनप्राप्ति । लाभ। नफा 1 ओथ - संज्ञा पुं० [अ०] शपथ । प्रतिज्ञा । वचत । जैसे,- जहाँ चार पैसे की यति होगी वहां जायेगे । ग्रोदq--मच्चा पु० [म० आई,प्रा० उद्द या सं० उदजल नमी । यौ०३-प्रोत कसर ना नफा नुकसान । जैसे—इनमें कौन मी श्रोत तरी । गीलापन । मील ।। कसर है। अद-वि० गीला । ग्राईं। नर । उ०—अनिँदक सक न मुखदायक, प्रोत-सुज्ञा पुं० [सं०] ताने का सुत । | निसि दिन रहत केलि रस आदि ।—सूर०, १०,११६ । श्रोत--वि० [म०] बुना हु प्रा। गुया हुआ । ओदक–पञ्चा पु० [सं०] जेल में रहनेवाला जनु । जलवाणी [को॰] । यौ॰—ओतप्रोत । प्रोदन-:"झा पु० [स०] पका हुआ चावल । भात । उ०---(क) अति- सच्चा स्त्री० [हिं० ओट] दे॰ 'अोट' । उ०—साहिं तनै सरजा जल ला ही जौब जीवन भर सदा नाम तव जपिही ! दधि के *य सो भगाने भूप, मेरु मैं लुकाने ते लहत जाय श्रोत हैं । औदन दोन मरि दैहाँ अरु माइनि मैं थपिहौं ।--सुर०, --भूपण ग्न ०, पृ० १९ । ९।१६४ । (ख) भाजि चने किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ । सोतनो - वि० [अ० वतनी] देश का 1 स्वदेश सवधी । अपने देश ---मानस, १५२०३ । २ वादल । मेघ को०] । का 1 उग्ररे हाँ, पलटू वडे खेलाडी यार हमारे प्रोतनी । श्रोदनपाकी--सञ्चः स्त्री० [सं०] नीलझिटिका (को०) । -पलटू०, पृ० ७९ ।। औदनाह्वया, प्रोदनाह्वासज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'दनिका' । अोतप्रोत'---वि० [सं०]एक में एक बुना हुआ। गुया हुआ । परस्पर । ओदनिका-पज्ञा स्त्री० [सं०] १ बना नामक ग्रीषधि । २. महासभंगा लगा और उलझा हुआ। । वहुत मिला हुआ। इतना मिला हुम्रा नामक एक पौधा [को०) ।। कि उसका अलग करना असंभव सा हो । उ०—योतप्रोत है। औदनो–सच्चा स्त्री॰ [सं०] बला । वरियार । वीजथंध । | जहाँ मनुज का जीवन मद मत्सर से 1--पथिक, पृ० १३ ।। श्रौदनीय, प्रोदय–वि० [सं०] १ ग्रोदन सवधी । २ ओदन के ओतप्रोत-सुधा पु० १ ताना वरना । २ एक प्रकार का विवाह योग्य [को॰] ।। जिसमे एक ग्रादमी अपनी लड़की का विवाह दूसरे के लडके । | ओदर--संज्ञा पुं० [सं० उदर] दे॰ 'उदर' । उ०—(क) जब स्ली के साथ करता है और वह दूसरा भी अपनी लड़की का विवाह जननी के अंदर परन से मारल हो ।-धरम०, पृ० ४५ । पहले के लडके के साथ करता है । श्रोता —वि० [हि० उतना] [स्त्री० होती] उतना। उ०—(क) (ख) पुनि बह जोति मातु घट अाई। तेहि ग्रोदर कादर बहू मोहि कुसल कर सोच न होता । कुसल होत जी जनम न पाई।---जापसी ग्र०, पृ० १६.। होता जायसी ग्र०, पृ० ६३ । (ख) कहाँ लिलार दुइज के औदना ---क्रि ० अ०स० अवदारण, हिं० ऑदारना] १ विदीर्ण जोती ! दुइज हि जोति कहाँ जन ग्रोवी ।—जायसी ग्र ०, होना । फटना । २ छिन्न भिन्न होना । दहना । नष्ट होना। पृ० ४२ । जैसे,—घर प्रोदना । उ०—-फूटहि कोड फूट जनु सीसा । श्रोतान@f-सा पुं० [सं० श्रवण] श्रुत राग या सुनने से उत्पन्न ग्रौदरहि बुरुज जाहि सब पीसा !--जायसी ग्र ०, पृ० २३४। अनुराग । उ०—सुनि राजन लग्ग श्रोतान । लग्गे मीनकेतु गोदा---वि० [सं० ३,प्रा० उद्द, हि० ग्रोद या स० उद=जल] [वि० ऋत वान {--पृ० ० २५॥२८ } ० झोंदी]गीला । नम्। तर । उ०--(क) उत्तम विधि सौ मुख २-२२