पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/११०

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से १ इन सब गड़बड़ों पर व्याकरण को विचार करना होगा और साहित्य में भी चिरप्ररूढ प्रामादिक प्रयोगों का निरसन करके शुद्ध पद्धति देनी होगी। बस, इसी तरह के अव्यवस्थित प्रयोगों पर व्याकरण अपनी व्यवस्था देगा। अन्यत्र वह कोई हेर-फेर न कर सकेगा । हिन्दी का स्वरूप निखरे लगभग एक सहस्त्र बर्ष बीत गए । अब यह एक प्रौढ़ भाषा है। इसका गठन बदल दे, ऐसी शक्ति किसी में है नहीं | अमीर खुसरो ने कहा- ‘ना फाटा ना खून किया, बीसों का सिर काट लिया इस पहेली की भाषा में और आज की हमारी भाषा में क्या अन्तर आ गयी है ? 'न' को तो छन्द में आज भी लोग दीर्घ कर देते हैं। तब फिर क्या अन्तर है ? जो भाषा खुसरो बोलते थे, वही आज हम बोल रहे हैं, ठीक उसी रूप में । साहित्यिक भाषा का स्वरूप-गठन सौ-दो सौ, या हजार दो हजार वर्षों में बदले नहीं जाता है । बोल-चाल की जन-बोली बदलने में ही सहस्रो वर्ष लग जाते हैं, तब साहित्यिक भाषा का तो कहना ही क्या ! यदि भाषा का रूप वैसः अस्थिर होता, तो हम अपने पुरखों के अनन्त संचित ज्ञान से क्या लाभ उठा पाते, जो कि अपने शब्दों में बॉध कर वे सुरक्षित कर गए हैं ? ऐसी साहित्यिक और निखरी हुई भाषा का व्याकरण भी वार-बार नहीं बदलता । व्याकरण बदलना पड़े, तो समझिए कि वह ठीक बुना ही न था। जिस अंश में गलती रह जाएगी, वही बदलना पड़ेगा। इसमें भाषी का कोई दोष नहीं है। पाँच सौ वर्ष पहले भी यदि हिन्दी का शुद्ध व्याकरण बन जाता, तो आज भी वह उसी रूप में चलता । हाँ, यदि कोई नई बात किसी को सूझती, तो और बढ़ जाती । परन्तु उस पूर्ण व्याकरण को कोई बदल न सकता | पाणिनि के पहले बीसौं व्याकरण संस्कृत के बने, पर वे सब अब कहाँ हैं ? पाणिनि ने उनके नाम हमें जरूर बता दिए हैं; बस ! वे सच व्याकरण क्यों लुप्त हो गए ? इस लिए कि ठीक-ठीक ने ही न होगे ! केवल पाणिनि की संस्कृत-व्याकरण संस्कृत-जगत् पर शासन कर रहा है । विश्व में ऐसा व्याकरण किसी भी भाषा का कोई आज तक न बना, न बनेगा, जो कि पाणिनि-व्याकरण के समकक्ष कहा जा सके। उसमें यत्र-तत्र कात्यायन ने कुछ नई बातें जोड़ दीं, जो कि छूट गई थीं, बस | पतञ्जलि ने इस पर ‘महाभाष्य' की रचना की और फिर