‘वर्षों के उच्चारण की रीति को प्रयत्न कहते हैं। ध्वनि उत्पन्न होने के
पहले वागिन्द्रिय की क्रिया को अभ्यन्तर प्रयत्न और ध्वनि के अन्त की क्रिया
को बाह्य प्रयत्न कहते हैं ।
| सृम्भव है, आप कुछ समझते हैं। परन्तु समझाएंगे कैसे ? हमें तो
भरोसा नहीं कि आप भी समझ सकेंगे पूरा तत्त्य ! और आगे भेद
समझिएः--
‘विकृत-इनके उच्चारण में वागिन्द्रिय खुली रहती है। स्वरों का प्रयत्न
विवृत कहाती है।
वागिन्द्रिय खुली रहने का क्या मतलब ? अन्य वर्गों के उच्चारण
में क्या वह बन्द रहती है ? यह खुला रहना और बन्द रहना क्या चीज है ?
सभी स्वरों का विवृत' प्रयत्न है, हुत्य 'अ' को भी । परन्तु पाणिनि की एक
सूत्र हैअ अ’ | इसमें पहला 'अ' विवृत है, दूसरा संवृत' है।
इस सूत्र का अर्थ है-‘अ’ को ‘अ’ हो जाता है, यानी विवृत 'अ' को संवृत
‘अ’ हो जाता है। आप उपर्युक्त सूत्र के दोनों अ' में क्या अन्तर समझते
हैं ? टीकाकारों ने लिख दिया है-विवृतमनूद्य सवृतमनेन विधीयते-इस सूत्र
में विवृत ‘अ’ को संवृत 'अ' होने का विधान है। इस टीका से संस्कृत के
विद्वान् भी समझ लेते हैं कि सूत्र का प्रथम 'अ' विवृते और दूसरा ‘अ’ संबृत
है ! परन्तु समझते खाक भी नहीं कि इनके उच्चारण आदि में अन्तर क्या
है ! किसी समय हमारे पूर्वज इन स्वरों का कुछ विशिष्ट उच्चारण करते होंगे
और उस उच्चार-भेद से अर्थ-भेद भी होता होगा। आज वह सब हमें नहीं
मालूम ! वेद-भाषा में स्वरों के उदात्त', 'अनुदात्त तथा स्वरित' नाम से ।
जो उच्चारण-भेद हैं, उनसे अर्थ-विशेष प्रकट होता था । वह सब हम भूल
गए । परन्तु वेदार्थ करने में वह अब भी अपेक्षित समझा जाता है, इस
लिए यह याद रख-रख कर ब्राह्मण पण्डितों ने आश्चर्य का काम किया है कि ,
किस मंत्र में कौन-सा स्वर उदात्त, अनुदात्त, या त्वरित है ! सम्भव है, वैसे
महान् पण्डितों में कोई ऐसे भी हों, जो उच्चारण भी वैसा कर लेते हों ।
परन्तु उन वेद-मंत्रओं की भाषा से हिन्दी बहुत दूर पड़ गई है। अब यहाँ,
उदात्त-अनुदात्त श्रादिं स्वरों के भेद तथा ‘विवृत-संवृत' आदि प्रयत्नों की
कथा कोई अर्थ नहीं रखती ! हाँ, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत तथा अनुनासिक-निरनु-
नासिङ्ग स्वरों के उच्चार-विशेष अवश्य चर्चा के विषय हैं, क्योंकि हिन्दी में
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