ये सब स्पष्ट उपलब्ध हैं । संस्कृत-व्याकरण में भी उदात्त-अनुदात्त आदि वैसे
अपेक्षित नहीं; वैदिक भाषा के व्याकरण में वह सब अपेक्षित है। प्रयत्न
भी पाणिनि-व्याकरण में वर्ण-साव अादि समझने भर के लिए हैं। कुछ
तो उपयोगिता हुई। और, लौकिक संस्कृत के समीप है चैदिक संस्कृत, जिसके
लिए वहाँ ‘उदात्त आदि तथा ‘विवृत' आदि का उल्लेख करना जरूरी हो
सकता हैं । संस्कृत के विद्वानों को वह सब समझने का प्रयत्न भी करना
चाहिए। परन्तु हिन्दी में वह सच भर देना उचित नहीं है ।।
‘स्पृष्ट प्रयत्न समझाते हुए हिन्दी-व्याकरणों में लिखा गया हैः-
‘स्पृष्ट-इनके उच्चारण में वागिन्द्रिय का द्वार बन्द रहता है । ‘क’ से ले
कर ‘म’ हुयन्ज २५, व्यंजनों को स्पर्श बरी' झहते हैं ।
छात्र पूछेगे कि ‘क’ बोलने में दागिन्द्रिय का द्वार कहाँ बन्द रहता है ?
क्या मतलब ? तब अध्यापक बगलें झाँकने लगेंगे, लजित होंगे; यह समझ
झर कि मेरी समझ में नहीं आ रहा है ! अध्यापकों को क्या पता कि
हिन्दी के व्याकरणकार स्वयं ही इन बातों को कुछ भी नहीं समझते !
इसी तरह ईषद् विवृत’ अादि समझाए गए हैं। इस व्याकरण में यह
सब कुछ भी न लिखा जाएगा; क्योंकि मेरी समझ में ही नहीं आता ! तब
दूसरे को क्या समझाऊँ ? जिन्हें यह सब समझने की इच्छा हो, वे ‘सुभा'
द्वारा प्रकाशित ‘गुरु जी का ‘हिन्दी-व्याकरण देखें । वहाँ यह सब मिल
जाएगा । जो यह समझते हैं कि हिन्दी के छात्रों को वह सब समझना जरूरी
है और वे समझ भी लेते हैं, वे उपयुक्त व्याकरण के अाधार पर शाठ्य
पुस्तकें लिखते ही रहेंगे । काम चलता रहेगा | मैं इस ग्रन्थ में यह सब न '
लिखेंगा, तो काम न चलेगा; ऐसी बात तो है ही नहीं । सो, ये सई दुरूह
या ( हिन्दी के लिए) अनावश्यक विषय इस ग्रन्थ में वर्णित न होंगे ।
इसी तरह कुदन्त प्रकरण में नेता, जेता, वक्ता, आदि की सिद्धि करने
के लिए न’ ‘जि वन्छ आदि का उल्लेख न किया जाएगा । 'नेता' श्रादि
वने-बनाए तद्रूप शब्द यहाँ गृहीत हैं। ‘नी हिन्दी में कोई धातु है ही नहीं
और न जि’ है। 'जि' की जगह ‘जीत' जरूर है । “वच भी नहीं, कह'
> से.(क) है। तब नी’ ‘जी’ ‘वच' का उल्लेख क्या ? नेता, जेता, वक्ता
शब्द बने-बनाए यहाँ गृहीत हैं।
पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/११८
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