पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१४७

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( १०२ ) को भी ‘किस' होता है। दोनों ( ‘कौन' और 'कोई’ ) की प्रकृति एक ही है; पर कोई’ में एक अव्यय भी है। संस्कृत कोऽपि का कोई-कोई रूप है । सो, “अधि' का यह 'ई' दिखाई देता है-*किसी को श्रादि में । यानी यहाँ 'ही' अव्यय नहीं है। अभी से तथा ‘किसी को श्रादि सन्धि-रूप से यह स्पष्ट होता है कि हिन्दी इन को 'ने' आदि विभक्तियों को प्रकृति से विभक ( हटा कर ) लिखने को प्रेरणा देती है। कुछ लोग विभक्तियों को प्रकृति से सटा कर लिखा करते हैं, परन्तु ‘बी० ए०' में अनुत्तीर्ण हो गया, जैसी जगह गड़बड़ जाते हैं । यहाँ विभक्ति मिला कर क्यों नहीं लिखते ? लिख ही नहीं सकते ! तब वह ‘सिद्धा- न्त' कहाँ रहा ? और, यह जोरदार ही अव्यय तो बीच में अद ही कूदता है ! देखिए न, ‘श्रा कूदता के बीच में श्री कुदा । तब चक्कर पड़ जाता है। और ‘नया समाज जैसे पत्र प्रयोग कर जाते हैं---‘हाल ही में पं० जवाहर लाल नेहरू अपनी चीन की यात्रा से वापस आए हैं। यह हमें क्या हैं ? इसी तरह ‘हीका' आदि दिखाई देते हैं । यह उसी अभिनिवेश का परिणाम है ! विभक्ति सटा कर लिखनी है, प्रकृति से न सही, “ही’ से ही सही ! काशी का “आज’ विशेष सावधान है । वह हाल में ही लिखता है, जो ठीक है। तो भी, अन्यत्र काम न चलेगा । सन्धियुक्त ‘अभी से उसी में श्रादि प्रयोग 'आज' भी करता है । यहाँ प्रकृति से सट कर विभक्तियाँ कहाँ हैं ? यद्यपि 'अव से ही प्रयोग भी होते हैं, परन्तु अभी से' आदि छोड़े नहीं जा सकते। दोनों तरह के प्रयोगों में अर्थ-भेद भी है। ‘क्या बता दें हम अभी से क्या हमारे दिल में हैं। इसके अभी से' पद को 'अब से ही कर ही नहीं सकते । अर्थ ही उड़ जाएगा । और गाड़ी छूटने ही को है, 'गाड़ी छूटने ही वाली थी आदि में क्या करेंगे ? ‘वाला' प्रत्यय है, वह भी प्रकृति से अलग पड़ा है--‘छूटने ही वाली थी। प्रकृति और प्रत्यय के बीच में ही ‘छूटनेहीवाली’ लिखने से भी प्रकृति-प्रत्यय का मेल कहाँ हुआ ? लम्वी पूँछ बन गई; व्यर्थ !' । सो, हिन्दी की ये ‘अपनी सन्धियाँ अपनी पद्धति भी स्पष्ट करती हैं। अवधी तथा ब्रजभाषा की भी ( प्रकृति-प्रत्यय के सम्बन्ध में ) यही स्थिति है । अन्तर यह कि वहाँ सन्धि नहीं होती–‘हित सब ही का' 'तू न त अब ही ते' । प्रकृति से विभक्ति विभक्त है । 'स' से 'का' और 'अब' से ‘ते’ सट कर हैं, या बहुत हट कर ? ‘फा' संबन्ध प्रत्यय और ‘ते’ विभक्ति है।