पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/१५३

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  • कायाकल्य' श्रादि हिन्दी-प्रयोगों में प्रकृत दीर्ध-विधि नहीं है। संस्कृत

का पुल्लिंग काय' शब्द हिन्दी ( जनभाषा ) में काथा' कर के स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होता है- ‘मानुस-जैसे हाथ-पाईं हैं, मानुस जैसी काया और- ‘काया कैसी रोई इसी काथा' से कायाकल्प है। संस्कृत में ‘कायकल्प' । हिन्दी में तद्रूप संस्कृत शब्द का प्रयोग करना चाहें, तो कायकल्य’ विद्यमान है; यदि जैन्च जाए ! परन्तु कायापलट' में तो काया' रहेगा ही ! कहाँ तक ‘क्रया' से बचेंगे } “काय' से 'काया” हिन्दी ने क्यों बनाया और क्यों स्त्रीलिंग में चलाया, ये सब बातें दूसरे प्रकरण की है । वहीं बताई जाएँगी । यहाँ इतना समझ लीलिए कि भाषा के अनन्त प्रवाह में कहीं कोई शब्द भिन्न गति ग्रहण कर सकता है। क्यों ऐसा होता है, क्यों वैसा हुआ, इसका पता भी लगाया जा सकता है। अध्यवसाय का काम है और मुख्यतः यह निरुक्त का विषय है। व्याकरण में तो प्रयोग मात्र पर विचार होता है। कोई पूछने लग जाए कि विश्वामित्र की तरह संसारामित्र' क्यों नहीं होता ? विश्वामित्र' में ही

  • अ' दीर्थ क्यों हो गया है तो इसका उत्तर में महामहोपाध्याय जी भी न दे

सकेंगे, जिन्हें महाभाष्य अक्षरशः याद है ! लक्ष्यं प्रधानम् उत्तर होगा। प्रयोग जैसा होता है, उसका उसी रूप में अन्याख्यान या अनुशासन कर दिया गया । वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते ‘काया' भूल न जाए ! संस्कृत में “काय पुल्लिर शब्द है । हिन्दी ने संस्कृत का यह शब्द लिया और वहीं का ‘या’ स्त्री-प्रत्यय; बना लिया-फाय + = “काया । यहाँ हिन्दी की अपनी वर्ण-सन्धियों की यह मामूली चर्चा संक्षेप से की गई । जब छात्रों के लिए नई व्याकरण-पुस्तकें बनेंगी, तब इनका वर्गवद्ध और व्योरेबार विस्तृत वर्णन होगा । यहाँ दो-एक और उदाहरण दे देने पर्याप्त होंगे। जैसे करे हे आदि में गुण-सन्धि बताई गई, इसी तरह ‘पढ़ो' आदि में भी है। पढ़हु'