पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२०

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प्रकाशकीय वक्तव्य

       ( हिंदी-व्याकरण का विकास )

आज सभा की ओर से हिंदी शब्दानुशासन के रूप में व्याकरण का यह अभिनव ग्रंथ उपस्थित करते हुए मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। इससे पूर्व हिंदी व्याकरण के अनेक ग्रंथ प्रचार पा चुके हैं जिसमें सभा द्वारा प्रकाशित कामताप्रसाद गुरु का हिंदी ब्याकर या अन्यतम रहा है। इतने ग्रंथों के रहते हुए भी जो इस व्याकरण को प्रकाशित करने की अश्यकता जान एड़ी हैं। उसके संबंध में कुछ निवेदन कर देना अनिवार्य जान पड़ता है । | हिंदी का व्याकरशः आज से प्रायः ढाई सौ वर्ष पूर्व लिखा जाना प्रारंभ हुआ था। भारतवर्ष में व्याकरण लिखने की प्रथा अति प्राचीन है और संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषा का व्याकरण हमारे प्राचार्यों ने विस्तार से लिखा है, परंतु हिंदी का व्याकरण लिखने की शोर शायद किसी का ध्यान गया ही नहीं । इसका कारण यही जान पड़ता है कि मध्यकाल में देश भाषा का श्रादर बहुत कम था । देववाणी संस्कृत की तुलना में लोक-वाणी का महत्व श्राचार्यों की दृष्टि में नगण्य था, इसीलिए तो सूर, तुलसी, विद्यापति, कबीर, मीराँ, बिहारी श्रादि महाकवियों की विशिष्ट रचनाएँ हो जाने पर भी लोक-भाषा की ओर आचार्यों की दृष्टि नहीं राई और वे संस्कृत व्याकरण की ऊहापोह में ही पड़े रहे। इसी कारण जहाँ रामानंद, नागेश भट्ट, पंडितराज जगन्नाथ अदि ऐडितों ने संस्कृत याकरण- संबंधी अनेक रचनाएँ कीं, वहाँ देश भाषाओं की पूर्ण उपेक्षा की गई । हिंदी भाषा का व्याकरण लिखने का प्रारंभिक प्रयास विक्रम की १८ शताब्दी में मिलता है। औरंगजेब के शासन काल (१७०४-१७५४ वि०) में मिजी खाँ ने ब्रजभाषा का परिचयासक संक्षित व्याकरण लिखा और प्रायः उसी समय हालैंड निवासी जोहन जोशुआ केटेलेर ने हिंदुस्तानी का एक व्याकरण लिखा जिसका परिचय डा० सुनीतिकुमार चाटु ने द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ में हिंदुस्तानी का सबसे प्राचीन व्याकरशा' शीर्षक एक लेख में दिया था । डा० ग्रियर्सन के मतानुसार यह व्याकरण सं० १७७२