पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२०५

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वर्तमान काल का ‘त' नहीं है, पृथड्स चीज है, यह क्रिया-प्रकरण में स्पष्ट हो । क, र, न प्रत्यय का प्रयोग सन्बन्ध में ही नहीं, तादात्म्य या अभेद में भी होता हैं । ‘श्रम का रस में सम्बन्ध है-अाधार-श्राधेय भाव है। श्राम’ (फल ) श्राद्दार है और ‘रस प्राधेय है । परन्तु 'कबड्डी का खेल में दादास्य है, अभेद है। 'कबड्डी' से भिन्न 'खेल' नहीं है। कभी-कभी

  • आरोप' करने में भी ‘क’ आदि प्रत्यय काम आते हैं--'आकाश के समुद्र

में जो चन्द्रमा का शेषनाग दिखाई देता है, उस पर विष्णु भगवान् दिखाई देते हैं। उनके श्याम रूप को ही लोग ‘मृगलाञ्छन' कह देते हैं । यहाँ

  • अाकाश' में समुद्र का आरोप है और चन्द्रमा' में शेषनाग का ।

इसी तरह अनन्त प्रयोग में ‘क’ अादि प्रत्ययों का उपयोग होता है। | क्व, र, न में ब्रज की पुविभकिं श्र’ लगती है, तब इन के रूप को रो’ नो' हो जाते हैं-‘राम को रूप निहारति जानकि कंकन के नग की परछाहीं । बहुवचन में और स्त्री-लिङ्ग में खड़ी-बोली की ही तरह के, रे, ने तथा की, री न रूप | पुरवी अञ्चल में 'या' या ‘ो' विभक्ति के बिना ही इन सम्बन्ध प्रत्यय का प्रयोग होता है---‘रामक कवन निहोर’ ‘तुम्हार हमार झामु अयि अप-अपने काम करौ' । बिहार की भोजपुरी, मगही श्रौर मैथिली तुझ ‘क’ चलती है और यथास्थान र’ ‘न' भी । आगे की भाषा में ‘क’

  • जरा - १२ है; पर 'श्रा या छो’ विभक्ति के बिना ही। ये विभक्तियाँ

तो बिहार में ही नई; प्रत्युत इस से भी पश्चिम में नहीं हैं ! परन्तु ‘’ प्रत्यय कुछ भेद के साथ आगे भी है। बैंगला में‘रामेर कथा’ सीतार वनवास' । अरन्स कृति के अन्य स्वर को ‘ए’ हो जाता है । यों अलगाव कुछ हो गया है और इर्स अलगद के कारण बैंगला’ ‘उड़िया ‘असमिया' आदि नाम श्री के ई, झारन्त । 'मगही भीड़पुरी’ ‘मैथिली नाम इकारान्त हैं, से अधधर' 'पई’ नस्थान' बैनाबा' बँदेलखण्डी’ ‘कन्नौजी' श्रादि । य हिरी भाषाओं में इस हिन्दी-रिवार में मानते हैं। दूसरे लोग पूरबी अँगल' झाद की अहने उन्हें कहते हैं ।न्चि, ‘मैथिली’ को ‘इँगला' और

  • भोसरी-उडिया में रूप-सभ्य है, था रूप-भेद १ :यिली' का अवधी से

मिलान कीजिए। हाँ, त्रिइरि-भाषाओं पर बँगला श्रादि का प्रभाव जरूर । पास का व पड़ता इंी है । पर उसे से कुछ नहीं बदल वा । रमिङ र 'मेर देखिए । ‘क’ क्या कहता है ?