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कठोर ‘दन्त' के रूपान्तर ( दस’ ) एर वैसा प्रभाव नहीं। 'बहू' स्त्रीलिङ्ग श्रौर ‘साहू पुल्लिङ्ग है; मूल शब्दों को देख कर । 'वधू' का 'बहू' है, और

  • दनु' का साहू। 'धूम' का गेहूँ भी पुलिंग । 'छाहँ' का प्रभाव ‘बाहुँ'

पर पड़ा हैं। शब्दों का साहचर्य, विकास-क्रम, अर्थ तथा रूप-गठन, आदि का प्रभाव वर्ग-इए ए पड़ा है; यह स्पष्ट है । स्वरू-पाठन में डंडा' अादि पुल्लिङ्ग हैं ही। विदेशी शब्द भी इस प्रकार के पुलिङ्ग मान लिए गए हैं---‘तर्जुमा अच्छा हुए हैं। ‘जूता' के अर्थ में यु’ पुलिङ्ग । चप्पल' प्रायः स्त्रियाँ पहना करती थीं । चप्पल लाङ्ग । न्यायालय की तरह ‘कोर्ट पुल्लिङ्ग-कोर्ट दस बजे लगता है। परन्तु 'कचहर स्त्रीलिङ्ग, ‘अदालत' भी इसी के साथ । इंद्रश्य और स्त्री प्रत्यय हिन्दी का पुग्न ‘अ’ है और स्त्री प्रत्यय ‘ई है–नाना-नानी, दादा दादी, चाचा-चाचा, छोटा-छोटी, बड़ा-बड़ी, गया-गई। सोना, ताँबा, राँगा श्राद्रि पुल्लिङ्ग; चांदी, मिट्टी, थाली, धोती कमेटी, कचहरी अादि स्त्रीलिङ्ग । भट्टा' का ‘भट्टी' न होगा; क्योंकि उस द्रव-पदार्थ में ‘दादा-दादी' या

  • ड़ी-बड़ी आदि की हैरह भाव नहीं । हाँ, अनभीष्ट बृहत्कायता आदि

प्रकट करने के लिए पोथी' का 'पोथा कृर दिया जाता है। अनभीष्टता के अभाव में वैसा नहीं होता । परन्तु प्राणियों के छोटे-बड़े भेद प्रकट करने के लिए 'मकड़ी-मड़ा जैसे रूप होते हैं। गाड़ी का ‘गाड़ा' अन- मीता श्रादि प्रदर्शित करने के लिए। कभी-कभी अभीष्ट अर्थ-विशेष प्रकट करने के लिए भी स्त्री से पु० बनता है-- संस्कृत वटी >‘बड़ी । ‘बड़ी का पुरूप इड़ा' एक पृथक् संज्ञा। संस्कृत में तो पुंश्चली को भी पुरूप

  • g"श्रलेः' कर लिया गया है ।

किसी का अव' या काम' प्रकट करने के लिए भी एक 'ई' स्त्री-प्रत्यय होता है - दूकानदार का काम दुकानदारी' । ‘दुकानदारी भी अच्छी, यदि ईमानदारी हो । ईमानदार' का भाव ईमानदारी’। “श्राई' भी स्त्री-प्रत्यय ऐसा ही ई-चतुराई सब जगह अच्छी नहीं। इस तरह की बातें तद्धित-