पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२३८

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इस से निकष निकला कि साहित्यिक भाषा में कुछ प्रयोग में विशिष्ट विधि अपनाई जाती है। खड़ी-ओली के क्षेत्र ( मेरठ ) में श’ बहुत प्रद- लित है--- ( सुन ), ताराहू दे” १ जानें ६) 'भै' ( बइन ) आदि सहशः प्रयोग ब्राप सुन सकते हैं । परन्तु निकटतम पड़ोस ( ब ) में का हकदम अभाव है ! * ऋ! ही साज्य हैं । इसी लिए इस ( अज- भाषा ) में मिठास है। दिल्ली बड़ी-बोल' तथा ब्रजभाषा के क्षेत्रों की देइल हैं। इधर मेरठ और उघर मथुरा । दिल्ली ने खड़ी बोली को साहित्यिक रूप दिया, जिस पर व्रज्ञा का प्रभार है । भाषा बहुत पुरानी साहित्यिक भाषा है; इरन ब्रजभाषा के ही पले मुखलमान ( कारची के विद्वान् } इन्द' वः ‘हिन्दी कहते थे । फारसी का माधुर्य प्रसिद्ध ईं हैं। वहाँ टग को, सुनते हैं, अभाव है। पड़ोसिन ( ब्रजभाषा ) को तथा उसके साहित्य का प्रभाव, धूरी अड़ोसिन ६ वी ) का भी प्रभाउ, जहाँ शा नहीं है। इवर फारसी के विद्वानों का सहयो । सो, ‘ ख ल झा ' राष्ट्र भाखड़ में स’ बन कर आया । हुण्ड' की स्वङ्ग हुन । गालि में भी , की मार नहीं हैं। अन्य ‘प्राकृतों मैं इश्व के विरुद्ध साहित्यिक विधान बने । वहाँ ‘ए’ की बेहद भरमार है ! कुरुननद मैं सुन’ को ‘सुण’ दो बोलते हैं; परन्तु निषेधार्थक न’ को ‘ए’ नहीं बोलते; न नाम’ ‘नमस्ते' आदि के नकारों को ही ‘ए’ बोलते हैं । ' बेलते हैं । परन्तु प्राकृत-साहित्य में निवार्थक “न” को भी शु’ और ‘मो को भी मो’ ! पता नहीं, ऐसी ही भाषा बोली जाती थी, था कि कोई साहित्यिक विधान वैसा था ! ' के क्षेत्र (कुरुनाञ्जल) में आज भी मानस’ को ‘मास’ बोलते हैं ! ऐसा जान पड़ता है कि इन सब कार-प्रिय

  • माणाखौं” के ध्यान में रख कर इी संस्कृत में एक मारव शब्द बनी हैं;

इनष्फा मजाक उड़ाने के लि। ‘इमें भाणाः समागताः' ~ बात करते होंगे ! ‘माधव' का अर्थ है---“मूर्ख मानव' ! भै' के मूलरूप में भी 'तु' नहीं हैं । “भगिनी' का मैंणु है ! *भगिनी बैसवाड़े में तथा पंचाल में बंदिनी' है। फिर ‘बहिन' और 'बद्दन” । कुरु- अन्नपद में “ब” और पहाब में भैण’ | राजस्थान में भी पाई हुन्न चलता हैं; र इञ्दि के आदि में कहीं भी नहीं ! वह ते माझजों की 'मीठी चीज है ! १३