पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२४६

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  • हे. नगरपिता, स्युः सचमुच तुम पालन करते हे ?'

‘भाताश्रो, बच्चों के चारित्र्य पर अयान दो ! इसी तरह-'राजाओ' ‘भाइमायो बिधाता' आदि । अञ्जनान्त संज्ञा है भर्तिमान् ? हे मतिमा !” माता पिता आदि के ? वा अदद के लिए लगाते हैं--- साता ली, पितः जी, अदि । नेकृत के हैं बिलः । ॐ अतः जैसे सम्बोधन ईन्दी में छपते नहीं हैं ! हाँ, देवि छड़ जाता है। देवि, अपक्ष छ देर इङ्गि अविलय मोरी' तुलसी-प्रयोग : है } । झारण यह कि विसन्ति प्रतिपदिक ईन्दी को कतई ग्राह्य नहीं । इस प्रकरण को समाप्त करने से पहले एक गि बात और कहने क्री है। इमने कई जगहू लिखा हैं कि संद-शब्दों के प्रथा के इक वचन कई रूप हिन्दी ने अपने प्रातिपदिक के रूप में अद्र झिया है-लुता, माता, नदी अादि । परन्तु संस्कृत के विकि-चिह्न { विसर्ग या म्' ; ऊहीं मिले, तो उन्हें इटा दिया हैं----श्रीः' का 'श्री' लिया है, और लक्ष्मी का भी लश्न’ इसी तरह वृन्न तथा नपुंसक लिङ्ग “जल’ अादि । । परन्तु कहीं बच के झरे में अपवाद भी देखा जाता हैं—पितर' ! स्वय पुरखों के लिए हिन्दी ने पितर' शब्द रखा है। विनृ’ का एक बञ्चन पित्ता' और इसी के बहुवचन पितरः' फा निर्विस के द्धितर-देव तिर सब तुम्हें गुसाईं-अवघं । हिन्दी के सम्पूश परिहार नें “पिहर है- इभान, ब्रजयात्रा, अधी, बुंदेलखंडः; सुबई । सिरों का श्राद्ध । परन्तु जिल’ ॐ साथ द्ध' का समरु ३ करे---एितर- बालत । । समान ३ ‘पितृ-श्राद्ध' है रहे । जैसे कि सचिस्तार अतिपादन रात हैं; सविस्तर प्रतिदिन' सही। परन्तु समास न करें, तो विस्तार से मैं ने इस का प्रतिपादन किया है य विस्तार आए था । संस्कृत में ऐजी जगई ‘विस्तार गलत है, 'विस्तर शुद्ध है--विदेश प्रतिवादितम्--- वित्तरे' नहीं सृह’ संस्कृत श्रव्य का 'विस्तर से हैं। हमास होता हैं । इसी तरह पितृश्राद्ध' ।