पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२५४

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तो ‘बारह' की लगइ दोद' या 'दुदल' जैसा कोई शब्द होता, जैसे कि ‘दुमुही’ ‘दुधारा' आदि में दो की सत्ता है। यह दो स्पष्ट ही संस्कृत "हाँ झा रूपान्तर है; उ’ की लोप और स्वर-लघव । यहाँ व्’ का लोप है और

    • ’ ‘सरमने है। जब कि ‘बारह बाईस’, ‘बसीस' आदि में दु' का लोए

और ब्’ सामने है; 'ब' के रूप में । साधारण शब्दों में दू' और यौग्दिक शब्द में “व' रखा गया है। यइ सच निरुक्त का विषय है; परन्तु बारह श्रादि में सामाविक रूप से बच ब्याकरड़ का बिश्य है। , सभास- प्रकरण में कुछ अलाया जाए। । य ईन्दी ॐ ‘दो संस्कृत ‘ड से है; पर व्रजभाय झा ' संस्कृत नपुंसकलिङ्ग छे” से है । ६ अमरूद खयि गयो । पूरब कः ‘दुइ संस्कृत ‘द्धि से है। ‘दोनो' तीनो' जैसे ससटिंबोझ संख्याक शुक में न कोई तद्धित इत्थर हैं, न समास की ही बात हैं। यह संख्या-वाचक शब्दों के साथ

  • हू' अव्यय चिपक कर बैठा है। ‘हू' ब्रजभाषा में बहुत सिद्ध है-

के अर्थ में । संस्कृत में ‘अ’ से मधिं का बोध होता है----ॐ त्र शत्र सुमागताः-वे तीन ही यहाँ आ गए। ब्रजभाषा में तीन लोकन मैं जस छायो' श्रौर चार हू मुलनि से लेते राम-नाम है । दोन-तीन र चार हू' चा । एक छह 'उ' ह्रस्व हो गया हैं। 'रस हैं मलै गो तिहारे संग-राम भी तुम्हारे साथू चलेगा यह डू इभ' के अर्थ में है--समुच्चय । राष्ट्रभाषा ने अपना पृथक् श्रअय भी रखा हैं । रामः अपि-रामोऽपि' का प्राक्कल में रामो वि’ होता है ! इ' वि खड़ी बोली के क्षेत्र ( २ ) तथा दुरुजाङ्गल और पंजाब में 'बी' हैं। यही व राष्ट्रभाषा में भी हैं । इँ हू' का प्रवेश नहीं हैं । हू हू कृई बाई । जाए, तो अच्छा न लगा । परन्तु समष्टि-छोछ कर के लि८; 'हू' का अहए; हैं। “हुन् कः लोप और गुराए-सन्धि-तीन-तीनो, चार-चारो' श्रादि । ३” से क्राबाद में दोऊ’ बनता है; परन्तु हिन्दी में दोनो’ | तन' के समीप है, यह पड़ गई । न’ र इच में ‘अग्रिम हो गया और फिर ई-सन्धि-दोनो। दोनों भाई को गए। हू' अन्य प्रथम प्राकृत से ही लुढ़कता-पुढ़कता वह हैं । संस्कृत में तथा उपलब्ध प्राकृत में इसका श्रेता-पतः मुझे अभी तक नहीं मिला है।