पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२५५

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हिन्दी के एक प्रमुख वैय्याकरण ने अकेला’ ‘एक' का समष्टि-रूप माना हैं : अनेकों की समष्टि हो सके जानते हैं; पर यहाँ एक ही फी समष्टि ! बस्तुलः “अनेसा' संस्कृत के ‘एफाक' के अर्थ में है और प्राकृत के इकलो त्यादि के वंश का है। कहीं 'कला' भी चलता है। अकेला' बर्ण-व्यत्यय से । कल से एक ला’ समझा जा सकता था । “छह का “छहो? रूप समष्टि में इजा है। कुछ लोग डा’ ‘छहों जैसे रूप लिख देते हैं, गलती से । ” में अनुस्वार-- नाशिक का पता नहीं । सम्भव है “तीनो' के नुनाविक 'न' का प्रभाव वैसे भ्रम का कारण हो ! थह भी सम्भव है कि

  • बंद कई श्रादि शब्द वैसे अस का कारण बन ए हौं । बीसों

दि में बहुत-बोधक है ।। धो लील हदि, लमष्टि-प्रधान संख्यावाचक शब्दों से बीस सैकड़ों श्रद्धं शब्दों की श्रेणी पृथकू है। यहाँ ' एक पृथक् तद्धित- त्यय है-श्राधिक्य प्रकट करने के लिए। यहाँ समष्टि-अर्थ नहीं है । दीस?' में और बीट में अन्तर है। अनेक से भी बुह 'श्रओं होता है। सहलीं, ल, करोड़ों, श्रर आदि । “बीस निश्चित संख्या और “बीसों निश्चित धिक्य के साथ बसि । बीसों' का मतलब ‘बोस से ऊपर ।। संख्याधिक्य ही प्रकट करने के लिए 'ओ' विकरण संज्ञा-सर्वनामों में लगता है, जब कि को’ ने’ आदि विभक्तियाँ सामने हों-बालक को–बालकों को ति-प्रत्यय के बुच.में आने वाले शब्दों को “विकरण' कहते हैं। ‘बीसों अादि में 'ओ' प्रत्यय है। सभी संख्यावाचक शब्द तथा थे विशिष्ट संख्या- कि चार हो' 'वी आदिं पुंस्त्री दोन वर्गों में समान चलते हैं । -प्रत्ययान्त ‘दुगुन’ ‘झितना' आदि भिन्न रूप ग्रहण करते हैं । ‘हुगुना’ ‘दिगुदा' आदि में छा’ ‘पुंबिभक्ति है; इस लिए बहुवचन में इथा छ ॐ ई--- दुगुना झिरया, दुगुने नौक, दुगुनी आमदनी । कोई-कोई ‘दुराना' भी लिखते हैं; धर तिंदना' ३ ' नहीं है यानी ‘दुगना' एकमात्र वैसा प्रयोग क्वाचिक हैं । “दु के अनन्तर दूसरे व्यंजन में भी ' कुछ भला न ला; हो । 'दिनु ादि दूर रद बिशेश; एकास र गे ही। दुगुना’ आदि से संख्या भी बीत होती है, परिभा भी ।। इर्थ तर अनः' उन' आदि विशेष संख्या तथा परिमाण प्राट करते हैं । 'कितने छात्र न कितना दूध' । यहाँ भी पुं-विभक्ति है; इस