पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२६२

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{ २१७ } है । परन्तु साधारण प्रयोग में 'सो' नहीं, “बई' है । इह्-उस्को । सो-साहिं । वह बात नहीं-हिन्दी में वह संकेत-वाचक विशेषण और सो बात नहीं ‘स्रो’ ब्रजभात्रा में | ‘जो’ संस्कृत का यः' है । य’ को ‘ल और वित को ओ' । प्राकृत-परम्परा से आया है। संस्कृत 'सः' का 'सो' हैं । सः' का प्रातिपदिक *तत्' है । सः' के वाद सर्वत्र ‘त' हैं–तौ, तान्, नम्, शादि । ब्रज भाषा में भी खो' के बाद सर्वत्र *त हैं-हिना को झादि ! खड़ी बोली (हिन्दी) में 'सो' का वइ हो गया है ?” झा विश्श्यय श्रोस>> श्रोस >श्रोइ>“वह् । ३' को तर श्री को बा ३’ होता है । इ' का फिर

  • उस’-उसे'-इसके अादि ।।

हिन्दी में भी कभी ‘से बात’ बोल देते हैं, यह अल बात । तुम ने सुना, वह सब ठीक ।' ‘य ‘जो' तथा 'वह' सर्वनाम १ सद’विशेषण ई-ठीझ' का । ‘ऐसे न देखो' में ऐसे क्रिया-दिशेष है-श्रा’ को ए’ । ब्रजभाना में देखो’ को ‘ऐसे; कैस' को कैसे और अवध में स’ का ‘ऐसे क्रियाविशेषण-ऐसे कोई न बन । उच्चरवा ३ । सरिस' तथा 'सखा' आदि शब्द हैं, सादृश्य-वाचक। “राम सरिस कोइ नाही'.--रास के सृसान कोई हैं नहीं । यह सरिस' खड़ी-चोली' के क्षेत्र से अलग विकसित झा है; इसीलिए पुर्विभक्ति नहीं हैं । 'सदृश का विकास सुरिस' हैं। ‘श' को ६g' और 'दृ' के “द् का लोप ! 'ऋ' को रि' हो ही जाता है । सहश' के ही सहोदर 'सुइट्स' शब्द से मुखा” इना हैं । इक्षु' शब्द लाद्दश्य के हई लिए, अत है—‘ सुनदृनं मधुरं फलम् मृत के समान मीठा फल । “सदृढ़ के ‘द का लेप और वशिष्ट ऋ' को 'री'; साथ ही 'नू' के का च और बचे हुए झे ब्लू । श्री लाइ बाई वुविभक्ति---‘सरीखा'। '९' को ‘कर देने की प्रवृत्ति है । । ख) सरीख' शब्द सादृश्य–ोधक है । इस ‘सरी झा विकास ब्रजभाषा में ‘सारिख प्रयुक्त होती है । मध्य की जद्द झाद्य स्वर दीर्घ र छ” थुनिभर्कि---‘दूल्हा राम सारि छ न दूल्ही सिय सारिणी ।। परन्तु यह ध्यान में रखने की बात है कि उत्तर प्रदेश के पूर्वीय अञ्चल में ही

  • सरीखा” शब्द जन-प्रचलित हैं; इस लिद, उठी और के ब्रजधा-साहित्य में
  • सरीखा? को जभाषा-सुलभ सारिखो रूप मिला है; अन्यत्र जने सहित्य में