पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२७८

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( २३३ ) ‘शिवाजी और मौजे में कितना अन्त था ! इधर एकमात्र ‘ख’ की भावना और साहस था; जब कि उधर अपरिमित शक्ति साधनों का बटाटोप ।' शिवाजी के पक्ष का परामर्श ‘इधर' से और दूसरे पक्ष का घर से हुआ हैं । कोई औरंगजेनी लि रहेगा, तो वह उस ( औरंगजेब ) का परामर्श बृद्द से करेगा । ‘इधर-उधर दिशा : इन्हें देना भर्घनाम से इन्हें हैं इस और इजर और उस श्री क्ष। दिशाक अर' तद्धित प्रत्यक्ष हैं। और यह इ” के ‘य'.---' को मुम्ट्रार' । यानी ‘अ’ को ‘' और द को ३' । अ, ३, २, को जब 'इ, ३, ऋ होती है, । संस्कृत में) उल्ले लम्स' कहे हैं। हिन्दी में भी मुस' बहुत ४ोला धै। सो, सम्प्रसार होकर दोनों जगह 'इ' का लोप ! इस' “इस' से 'धर रें, तो 'सु' का लोप । ६’ और ‘स' सगे भाई हैं। संप्रसार गई दोना अगह । जब यह वह' के सामने कोई प्रत्यय ऋता है; तो प्रसारण होता है- इसने उसने' । ह’ को ‘सु' हो गया। इसी तरह धर' प्रत्यय होने पर समझिए । ब्रजभाया में दिशा-वाचक अव्यय इधर-उधर नई चलदे । धड़धड़ाते हुए धकारों से मिल ब्रजभाधा के धड़कन उभट्ट सकती है। वहाँ कोमल इत’ उत’ ‘किंत’ ‘लित' शब्द हैं। संस्कृत के इतः से विसर्ग इटाकर ‘इत’ कदाचित् अपना लिया गया है और फिर ‘इन’ के वजन पर

  • किं' 'जित श्रादिं गढ़ लिए। मघा में इस तरह शब्द गुड़ने की चाल

हैं ! ‘कृत' से 'क्रिय बनाकर पुंविभक्ते लगा ली--किया और ब्रजभाषा में ‘कियो’ ! फिर किया के नृजन घर ‘पदा' आदि की नहीं, या ‘खाया' अदि भी गढ़ लिए ग। य? 'य' ( ‘या’-‘यो ) भूतष्मान के प्रत्य मन लिए गए। इसी तरह ‘इज' बनाकर फिर 'त' को दिवाचक तद्धित-प्रत्यय मान लिया गया, जिकी उपस्थिति में जो श्रादिं को द्धि जैसा रूप मिल जाता है । इ' को ते ३' होगा ही। कहीं-कहीं ( बुंदेलखंड आदि में ‘इत-उस' को इ-उतै जैसे रूप मिल जाते हैं । इघर ( इत-इते ) आदि नः दिशाबाचक अव्यय हैं । इसी तरह अधिकरण- अन या स्थानावः अव्यय यहाँ-वइ, आदि बनते हैं। अहाँ तद्धिः प्रत्यय है। इस जगह-यहाँ और उस