पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२७९

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( २३४ } जगह 'वहाँ। इसी तरह ‘जहाँ कहाँ अादि। अहाँ प्रत्यय आने पर प्रकृति का श्राद्य अंश शेय, शेष सब का लोप ।। | जिस अर्थ के लिए हिन्दी अपने उर्वनामों से स्वतंत्र अध्याय बना लेती हैं, उस अर्थ में अन्य किसी भी भाषा के अव्यय ( विकल्प से भी } नहीं ग्रहण करतः । इधर श्री ’ को ‘इतः श्रा' नहीं कह सकते और वहाँ बैठो’ झी ‘त बैंठ भी नई कह सकते हैं यही स्थिति ‘कित' ‘जित' आदि भय-व्यय की हैं । स्थान-प्रधान अव्यय 'यह' अाँ के अनेक रूपान्तर विभिन्न बोलियों में gो गए हैं। वहाँ के साथ कहीं तहाँ भी चलता है; परन्तु राष्ट्रभाषा में वहाँ रहता है । जहाँ, तहाँ, कहाँ के अन्य स्वर को ह्रस्व भी ब्रजभाषा अदि में हो जाता है-'नहूँ अहँ धेनु चराई माधव, तहँ तहँ फिरविं अधीर । परन्तु राष्ट्रभाषा में “यहाँ-वहाँ अादि सदा एक-रूप रहते हैं। ऐसा वैसा' आदि प्रकार-वाचक विशेषण भी यह' 'वह' आदि सर्व नाम से बुने हैं। सम’ का तद्भव रूप 'सा' हिन्दी में है ही । सर्वनाम के साथ उस का समाप्त कर के 'पेसा' 'वैसा' आदि विशेषण । वे अव्यय तद्धित- प्रत्यय से और ये विशेष ‘सा' के साथ ससस केरके । इस -- सा-ऐसा और उस+सा=वैसा' ! सामने ‘सा' श्राने पर 'वह' और 'यह' को सम्प्र- मार था इ-लो! 'इ’ की ‘वृद्धि-ऐ’। बन गए-ऐसा, वैसा, कैसा आदि । संस्कृत में भी इकार को तथा उकार को श्री के रूप में आते देखा जाता हैं---‘नायझ: ‘पावकः अादि सामने हैं । ( ‘नी' धातु को 'नै और 'पू' को ऋर के आगे के ‘अझ' प्रत्यय से सन्धि है । ” को आव्’ छो गया है। } पीछे हम ‘कीदृशः' श्रादि से कैसा' आदि प्रकार-वाचक विशेष का उद्भव बता श्रद हैं। परन्तु इस तरह भी इन का उद्भव सम्भव है। दूध से सीधे ही ( क्रीम के कप में । दुई निकाल सकते हैं और दूसरी तरह से दही बना कर और फिर उसे मथ कुर-भी निकाल सकते हैं। ऐसा कैसा आदि विशेष दोनों तरह से संभावित हैं ।। इस अर में इतना समझ लीजिए कि संस्कृत की ही तरह हिन्दी में भी सुईनग्मी से विविध श्रेणियों के शब्द बनते-चलते हैं। हिन्दी के 'जब’ ‘कब अदि