पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(२३५)

काल-वाचक अपने निजी व्यय हैं। परन्तु इन का उद्भव हिन्दी के जे कौन' आदि सर्वनामों से नहीं हैं । इ' से 'अब' और 'वह' या “लौ से ‘त' नहीं बन पाये हैं । लम्साह से 'य'-- को 'इ'-३' होता है--‘या’ नहीं । कुरु-प्रदेश से लगे 'कुरुजङ्गल में ( सहारनपुर और अकवाला के बीच में । ‘यदा-कदा-त' संस्कृत शृश्यों के भर में जद कद इद जनभा में चलते हैं। इन्हीं के द’ को कुरु-जनपद में व’ हो गया हैं--- य ज में भी और आगे वैसवाई में तथा ऋ में भी, बिहार में भई । सो, “अद-कद” आदि से ‘जब-कब बने १ *स्कृत के 'इदा' या साम्त आदि की और न देख कर अब-तत्र' के वन पर अब 4 बना लिया वा---'व' इस समय । इन्हें श्री में हैं । कृर अभी भी अदि रूप है। हैं । इजभाप के ‘ध’ ‘भ' श्रादि महाप्राणों की झरत पसन्द नहीं; इस लिए वहाँ सन्धि के बिना-“अझ ही नहीं है उन्हें हैं । शून्छ । ‘अवै-तवें । इ' के टू' का लोप, और इद्धि-सन्धि । कानपुर के इधर- उधर जन-बोली में ‘अझै इम् ले नै सुन पड़ता है। अच” तथा “हीं की प्रकारान्तर से सन्धि ! कई = ॐः द्वित्व भी जन-भाव में हैं। {-अभी ) और लब्बै’ ( ती ) । ‘आप’ हिन्दी में मध्यम पुरुष प्रयोज्य) श्रादरर्थक सर्वनाम है । * छोटों के लिए, 'तुम' बराबर वाले के लिए और अप' बट्टे के लिए। संस्कृत के 'भान्’ का समानार्थक है। संस्कृत के अनु' का प्राकृत में,

  • pथमा' के एक वचन में श्रो' या 'अयो' ए होता है । हिन्दी में यह

‘अप' है। ‘श्रीमान् या काइते हैं मार झेः ॐ झाश' 'हुजूर कः दो हुक्म' जैसे श्रादार्थक शब्दप्रयोगों ॐ हर पहले अाध झ ञ श्रज्ञा जैसे शि-प्रग इंद, हैंगेि । झा चन कर, प्रशोधि के अर, ४ शब्द मध्यमपुरुष के लिए प्रश्दस्यद सपना ही बन गया । इप' में हिन्दी नै अपनी खुविभक्ति नहीं गई; क्यों कि वह स्वभावतः एक वचन की निशानी है और यह {श्रय' } शब्द स्वभादः वहुवचन में रहता है। कई-कहीं { चरन तथा अन्नबाधा श्रादि में ) श्राप मिलता है; परन्तु ‘अद के अर्थ में नडों, ममतः यः । अादि के अर्थ ३ } श्राः गयो तिथे ।

  • आपा-अपनापन ! यह अपना हैं । 'मेरर हैं'; इस तरह का भाव *श्चा' ।

श्राप देन रहा है, भाववाचक संज्ञा हैं ।