पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२९८

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३ कर के ब-कब आदि रूप हो जाते हैं। कुरुजाल में 'सदा' का रूप सद' नहीं हुआ; क्योंकि वहाँ और उस के पड़ोस ( ब्रज में : अव्यय को “सुद' बोलते हैं-'सदलोनी'-ताजा मक्खन, सद्यः ससुद्धत नव- नीत । जब सद्यः' का सद' बन गया, तब सदा' को वह रूप न दिया गया । श्रम क्यों बढ़ाया आए । हिन्दी में वादा का जैसे कुछ’ बना, उस तर सदा झड़ सुद्ध' बन जाता, तो मैं ठ# न होवा । छ खेलें है आदि प्रयोग में अम-सन्देइ श्री उस ! 'दे १३ ते ३ ॐ सब को सद (ताजा) भी सुझा तः ! हिन्दी-विकास को यह पद्धति न है । हो, संस्कृत ऊः उद्गम शब्द वादा' लदा हैं , संयुन्म देने हुदा-दा' र इलाके हैं यदा-कदा ध्रन्छ। इन्भीर पुस्तक भी देखने में थी की हैं। इसी तरह उ----‘युत्र-तत्र बिछी सामग्री हाँ इकट्ठी कर दी गई है। लग-अल कुत्र' और 'तंत्र में श्री । चक्क माझी, चन?” * * * कई जगह ‘या’ कभी भी न बैठ के गइ और न वृक्षों में इं? ना हूँ मैं वहाँ की जगह 'त्र' ले सके गा । संस्कृत के ** की वह हिन्दी में है? हैं, जो कभी' के साथ संयुक्त हो कर अन्दा ' का काम देती हैं- र झर्भ हिन्दी का क्या अपना अव्यश्न है; इस लिए संस्कृत झा 'किम् । ८ रहा । ‘कुछ अपना हैं; इस लिए किमपि न आए र । अवश्य कर्भ 41 किञ्चित् तद्र प अ जाता है --*ञ्चत् घन पद, कर ही क्षुद्र जन इत राने लगते हैं ? अन्य भाषा के शब्दों के साथ ‘किञ्चित् न ? गर ।

  • झिझि दौलत' नहीं कह सकते ! भूरा किञ्चित् धन' कृत तद्रय समन

संस्कृK की कईओई संज्ञा हिन्दी में प्रय” *न गई हैं; उदः- हरार्थ 'श्री' । सम्झनाशक 4'-अशुन्य नाम : झारे; लाया जाता है- ‘श्री श्रीराम इम’ श्री सरया शुभ’ ! नाम के अन्त में जै; अवय सुम्मा- नार्थ लगता है.---'अचाई पं महावीर प्रसाद की हिंवेदी' । | दी’ और ‘सा दिन्दी ॐ श्रने अन्यथ हैं, जे वाक्य के प्रारम्भ में भी अाने हैं:.-.. तो, हेर्स क्या जल्दी पड़ी है ॐि भान भी नहीं कर रहे हो ? स, एक बात तो निश्चित हैं—वें अब यहाँ न रहें ।