पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/२९९

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संस्कृत के यथा--तः की जगह हिन्दी के ज्यों-त्यों अव्यय हैं और ‘इत्थम्-कथन्, की जगई ‘यों-स्त्र' । सीधा मार्ग-ज्यों, त्यों, ४, क्यौं । स्वीकार किन्दी का अपना अव्यय ४ाँ है; इस लिए संस्कृत के अनू' या माढ श्रादि हाँ नई दलते । अम्' का ही फ़दाचित हाँ इन श्या ।। नु' का धनुनासिक और है' का श्रम । संस्कृत का हुम्’ हिन्दी में हूं' हो गया है । ऐसा अभिभान् !' 'ऊँ' अलग अव्यय है, धरुन बाट को फिर से पूछने आदि में । इसी अर्थ में में भी है । झाञ्चयं तथा झवि आदि प्रकट करने में भी प्रयोग होता है । ऐसी उदण्डता : न' और नहीं होने निषेधार्थक है; परन्तु विषय-भेद से आते हैं ।

  • बह ८ ८ रा छाधारण प्रयोग है; परन्तु इन में बह जाएगा नहीं

इ' झा र अन्त में हो, तो निषेध की जगइ अद-दृढ़ता प्रकट करने दुरला ई-बह मेरा काम कर दो न !' अनुनय है। तुम वहाँ जाओ । = १ निषेध नहीं; प्रश्न हैं; परन्तु अपनी चि के साथ। 'नहीं' का ऐसा प्रयोग नहीं हो । र कोई विशेष भ्रात इस सम्बन्ध में कृइने की है नहीं । 'न' तथा “नहीं” के प्रयोग-भेद में कुछ और भी कहना है । ‘न’ और ‘ही मिल कर हैं। 'नई' एक पृथक् अव्यय बन गया है। न’ के अनन्तर 'ही' को स्वर नुनासिक हो गया है-झोकूनी इया = ‘टोहनियाँ अदि। परन्तु आगे यह मूल बात ओझल हो गई और तुव ‘वह नहीं है। गया में पृथक है भी ! जान-बूझ कर भी जोर देने के लिइ 'ही' ही द्विशक्ति हो सकती है, जोर देने के लिए। न’ साधारशी निषेध है और नहीं दृढ़ता के साथ । शेर अन्न नहीं रखता है निश्चय है । दृढतापूर्वक शेर के अन्न खाने का निषेध है। राम अभी नहीं पाया है' दृढ़त के साथ राम के आने का निषेध है। परन्तु -- म कुलकचे २ ए, तो अच्छा यहाँ क्रिया की नियईि निश्चित नहीं है । यह न मालूम कि इस कलकत्ते जाए , या नहीं। इसी लिए नहीं यहाँ न दिया जाए । । भगवान् रे, राम अब कभी भी ऐसी विपत्ति में ने श् । यई भी क्रिया अनिश्चित है। राम विपचि में न ही पड़े गा,