पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३०

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लिखी थी कि हिंदी भाषा में एक भी सर्वमान्य व्याकरण अभी तक नहीं बना और अगस्त १६.०८ की सरस्वती में पं० कामताप्रसाद गुरु . ने भी

  • हिंदी की हीनता' शीर्षक लेख में इसी प्रकार लिखा कि इस भाषा में न

कोई माना हुशा व्याकरण है और न कोई प्रामाणिक कोष । नादारीप्रचारिणी सभा जो उस समय हिंदी की हीनता दूर करने के लिए, सब प्रकार के प्रयास कर रही थी कोष और व्याकरण दोनों की कमी पूरी कृरने में जुट गई । प्रारंभ में बाबू गंगाप्रसाद एम० ए० और पं० रामक शर्मा से सभा ने व्याकर राहु ग्रंथ लिखवये परंतु उससे संतोष न होने पर आचार्थ महावीरप्रसाद द्विवेदी और माधवराव सप्रे के अनुरोध पर पं० कामता प्रसाद गुरु को व्याकर रवा लिखने का भार सौंपा । गुरु जी ने बड़े परिश्रम और लगन से एक अत्यंत प्रामाशिक या क्रुर लिखकर प्रस्तुत किया । इस व्यकिरण को सर्वसम्मत बनाने की आकांक्षा से सभा ने एक संशोधन-समिति निर्वाचित की जिसमें प्राचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता में साहित्याचार्य पं० रामावतार शर्मा, पं० चंद्रधर शर्मा गुलेरी, पं० लज्जा शंकर झा, पं० रामनारायण मिश्र, बाबू जगन्नाथदास ‘रत्नाकर', बाबू श्यामसुंदर दास, पं० रामचंद्र शुक्ल, पं० गोविदनारायण मिश्र और पं० अंबिका प्रसाद बाजपेयी सदस्य थे । आश्विन शुक्ल ३ सुं० १६.७७ १ १४ अक्तूबर १९२० ई० ) को इस संशोधन-समिति का कार्य आरंभ हुआ। जिसमें समयाभाव के कारण पं० गोविंदनारायण मिश्र तथा श्री पं० अंबिका प्रसाद वाजपेयी उपस्थित न हो सके । इस समिति से संशोधित हो सं० १९७७ में हिंदी का यह प्रथम सर्वमान्य व्याकर प्रकाशित हुयी ! इसके प्रकाशित होने से प्रायः सवा साल पूर्व ही पं० अंबिका प्रसाद बाजपेयी का हिंदी फौमुदी' नामक व्याकरण ग्रंथ कलकत्ते से प्रकाशित हो चुका था । हिंदी व्याकरण के निर्माण का यह तीसरा दौर था ।। | पं० कामता प्रसाद गुरु का व्याकरण प्रकाशित कर सभा में हिंदी के एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति की । सं० १६.७७ से आजतक प्रायः ३६-३७ वर्षों में इस व्याकरण नै लाखों छात्रों, लेखकों और पाठकों को शुद्ध हिंदी लिखना और बोलना सिखाया है। आचार्य द्विवेदी जी ने जिस व्याकरण- सम्मत भाषा का लक्ष्य स्थिर किया था गुरु जी के व्याकरण ने उसकी पूर्ति में महत्वपूर्ण योग दिया। इस व्याकरण के अनेक संस्करण अनेक रूपों