पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३०१

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ऊपर प्रसाहित्यिक, तथा अहितक' शब्दों में 'न' का रूप 'अ' हो गया है; यानी उस का अद्य अंश ( व्यंजन ) लुप्त हो गया है ! कभी उलट- पुलट ही जाता है----‘न' का ‘अन्’ हो जाता है, स्वर पहले, और व्यंजन छाद में---‘अनीश्वरवृद्ध’ ‘अनुपम्' (अनेकता, आदि । हिन्दी में सुसास-गत 'न' के उपर्युक्त 'अ' तथा 'अन्' दोनों रूप चलते हैं, संस्,त-तः सामासिक शब्दों में ही । परन्तु ठेठ अपने शब्दों में ‘अ’ को सस्वर कर ॐ श्रन' रू ही सदा समास में चलता है-*अनमोल हीरा

  • श्रलदेखी बात’ ‘अनसुनी कहानी' आदि । संस्कृत शब्द अाप की अमूल्य

सम्मति मेरे बड़े काम आई' आदि में 'अमूल्य’ रहे गा ! 'नहीं' भी ‘न' का ही जोरदार रूप है; 'ही' के साथ । परन्तु समास में तो जोर रहता ही नहीं । सो, सर्वत्र 'अन' रहेगः । विदेशी शब्दों के साथ भी-टूम० ए० और अन-- एम० ए० सब एक से इहाँ हैं । येग्यता देखी जाती है। कभी-कभी ना हो जाता है- वीज नालायक' श्रादि । कभी 'अपने शब्दों के साथ छ' भी-अमोलक राम-अकह काहानी' । स्वरादि शब्दों में भी

    • चीजें अलग रखो, अद-झाँक्री अला ।'

एक विशे दात यह कि हिंन्दी ने संस्कृत के अव्यय प्रायः तद्रूप ही अपनाए हैं। उन में कोई हेर-फेर नहीं किया है। सदा, प्रायः, अन्यत्र, सर्वत्र आदि ज्यों के ये चलते हैं। जब-तब आादि का उद्भव भी सीधे अदा-तदा' ले नहीं है, कुरुजाङ्गल के जद-तद' से है; यह पीछे लिखा जा चुका हैं । श्रन्यत्र' का तद्भव रूप “श्रन' ब्रजभाषा में चलता है और म्यन्ते' चलता है हिन्दी की ‘बैंसवाड़ी बोली में । नत कहाँ सन्चु पावै ब्रजभाषा और हम कान्ते कहूँ न जैवै बैजुवाड़ी--‘हम अन्यत्र कहीं न च में । राष्ट्रभाषा में ‘शनत” या “अन्ते' गृट्ठीत नहीं है; सीधा अन्यत्र’ चलता है ! जहाँ श्रन्य' छा ‘अन्त' बना, वहाँ ‘सर्वत्र का सरबत' नहीं ना; अन्र्योंकि विदेशी भाषा का शर्यत' भी जन-भाषा में सरबत' जैसा चलता है । प्रायः आदि तद्र ५ संस्कृत शब्दों में विसर्गों की स्थिति अक्षुश रहती हैं; परन्नु दुःखद विदोषण के विसर्ग प्रायः स हो जाते हैं। इसी तरह दुःखदाय' का लदाथी' या ‘दुखदाई तद्भव रूप हो जाता है ! परन्तु अव्ययों में यह बात नहीं । 'घरे रे” के स्थान पर यदि कोई संस्कृत अव्यय ६ , हो हद ५ ही--शनै,-शनैः शुभ मुहूर्त अाया ।'