पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३०५

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शाल>“निहर? श्रादि तद्भव धातु हैं। जर' धातु ब्रजभाषा तथा अवधी में हैं और हिन्दी में जल' घातु है.. जलता है । जर' धातु में *' उपसर ब्रजश्व एदि ने नहीं लगाया है; 'ज्वल' से एलर' बनी-बदाई ६ अदि 'दत भाज' आदि क्रिया में भी कहीं ** नगता, तो अ यह हिन्दी का पृथकू उपलः समकः ता । '३' उपसर्ग हिन्दी का र सान त? ६-, उड़; उचा, श्रादि शब्दों में उसकी स्धांते हैं । कुछ भी हो, राष्ट्रभाघा की क्रियाएँ *पजता है' जैसी नहीं होतीं । यानी यह हिन्दी की अपनँ।' धातु में अपने भी उपसर्ग पृथक नहीं लगते । | ऐ जान पड़ता है ईि ता र संक्षे-प्रियता के ही कारण हिंन्दा

  • पृथक उर्ग झिा आदि में भी पसन्द किए। जब होता है और

करता है ये दो क्रिया - ग्रन गए, इन भवति'-अनुभवति' की तरह एक ही धातु में 3 - ये से अर्थ-भेद करना बेकार ! ‘होता हैं'-'अनुश्नत्र होता हैंदुख होता हैं' आदि प्रयोग होते हैं। इसी तरह करता हैं' समझ लिंदा, फिर 'विहार करता है ‘प्रहार करता हैं' संहार करता है' आदि । सीधः सर्ग । इस प्रचुचि के प्रकट करने के लिए हिंन्दी ने अने पड़ोस ( पनि } की ‘देव तु नहीं की। ‘बेखदा है'-देखता है । वैख' संस्कृत वीक्ष' से है । ई’ को ‘२’ और ‘छ' से ' का लोप कर के धू’ को ‘ख’ सस्त्रर । शः : इग्न ॐ साई इक्ष स्वाद का वेल' हिन्दी में न ले र् बेल इङ पृथुक घातु बनाई, जिस में थट्टतः “वेच' को छाया है । “इश से 'देख है, उसी स्त्र के अनुर र । उपनि' के ‘उय’ को हटा कर ' छ । बैठ तु हिन्दी ने इमाई ! सुहा में इरति के साथ 'वि

      • अदि छग र कृर विहार करना संहार करना “प्रहार

करना ६ अर्थ प्रकट झिए जाते हैं । हिन्दी ने झमेल नहीं बढ़ाया । आन्दी ॐि धातु में पल रू-लश कर ऋथ-भेद नहीं किया । ‘करत हैं। %ि बा ली और फिर संस्कृत के ‘विहार संहार' प्रहार' श्रादि शब्दों ॐ नाथ से ला दिया---'वाइ रह हैं 'प्रहार करता हैं' श्रादि । में डूबने आई यर्थ हैं---*बत है' और 'आहार' झहते हैं-

  • * { {५१मः अ६ श्राहरा-राम कृपा खींचता हैं । रासः

हुन् ६' र '२१म: दुष्टानाद्, संहारम् करोति' का एक ही अर्थ हैं।