पवन आदि के ये भाषा-विज्ञानी हलन्त बतलाते हैं ! धवन अकाद
संस्कृत-शब्द हिन्दी में व्यञ्जनान्त ‘पवन्’ होता, तो फिर यह ( हिन्दी;
संस्कृत के 'धर्सन्’ कर्मभू' जैसे प्रतिपदिकों के ‘न्” को अलग कर के चम
कम थ्रादि के रूप में क्या अपनाती ? aनान्तशब्द् तो पहले ही
प्रकल में छंद गुरू थे । यह एलटी गंगा अब फिर हिमालय पर क्यों चढ़ा
जा रही है ।
खैर, इस तरह की बहुत ही मजेदार बातें हिन्दी के भाभा-विज्ञान',
क्रन्थों में हैं। जो धमाचौकड़ा पहले 'व्याकरण' में थी, वहीं आज भाषा-
विज्ञान में हैं और ‘२स-अलङ्कार’ को तो कूड़ा ही बना दिया गया है ।
प्रसंगान्तर है, कभी देखा जाए' गः । यहाँ उपसर्ग' के सिलसिले में ‘परसर्ग
याद आ गया था, उसी पर कुछ कहना था । परसर्ग' नया शब्द गढ़ा गया
है, चलाया जा रहा है। को, ने, रे, के, से, में आदि संज्ञा-विभक्तियों को ये
लंग ‘परसर्ग' कहते हैं। पूछो, यह नया नाम क्यों ? ‘विभक्ति' नाम क्यों
बुरा ? तो, कहते हैं कि ये 'को 'ने' आदि प्रकृति से इटा कर लिखे जाते हैं,
सुटा कर नहीं, इस लिए ‘विभक्ति नहीं और इसी लिए ‘परसर्ग है ! परन्तु
तेरे गौएँ हैं, अपने एक लड़की है। ग्रादि में तो २’ ‘ने' विभक्तियाँ सट
कर हैं ! इन्हें क्या कहो गे ? श्रर, बहुत से लोग तो को’ आदि को भी
सटा कर ही लिखते हैं। बहुत से ऐसे हैं, जो हट कर लिखते हैं। पर सर्व-
नार्मों में सटा कर ही लिख हैं-‘राम को फल' और 'इसको मधु' । यहाँ
‘को' परसू है और दूसरा विभक्ति ? क्या लाभ ? थइ क्यों नहीं कह
देते कि हिन्दी में विभक्तियाँ प्रकृति से इटा कर लिखी जाती हैं, कोई-कोई
सटा कर भी लिखते हैं। संस्कृत में विभक्तियाँ सटा कुर ही लिखी खाती हैं,
हो लिखी चाहूँ। हिन्दी तो एक स्वतन्त्र भाषा है। कोई विभक्ति सटा कर
भी लिखी जाती हैं, हटा कर भी लिखी जाती हैं। परसर्ग' नाम रखने की
कई कार तो नहीं नजर आया ।
कहते हैं, हे ‘क’ आदि हिन्दी की विभक्तियाँ नहीं हैं, कुछ दूसरे शब्दों
ॐ घिसे हुए रूप हैं ! इसी लिए ये ‘परसर्ग हैं ! बहुत खूब ! संस्कृत की
विभक्तियाँ ३ अनी १ क्या वे स्वतन्त्र शब्दों के घिसे हुए रूप नहीं हैं ? कोई
चीज कैसे इन, अद्द अलग बात है। रेशमी कपड़ा क्यः कपड़ा नहीं हैं;
थइन्छ न ई से नहीं बना है १ रुई से बनी चादर इम ओढते-बिछाते हैं
और रेशम चादर भई । दोनों चादरें हैं। रेशमी चादर को चादर' न
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