पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३११

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जाए, गी । इस का कारण यह है कि कृदन्त रूप संक्षित, सुडौल तथा श्रवणु-- सुखद होते हैं, तिङन्त रूप की अपेक्षा । “अन्त' अदि के रूप तो बड़े बेढब होते हैं। इसी लिए संस्कृत-काव्यों में यङन्त आदि की क्रियाएँ नहीं के बराबर हैं और साधारण ‘तिङन्त' की अपेक्षा भी कृदन्त की ओर अधिक मुझाव है । संस्कृत की ही तरह जन-भाषा में भी कृदन्त की श्रोर अधिक गुज्ञि रही हैं। इसी लिए हिन्दी में कूदन्त क्रियायों का अधिक्य हैं । परन्तु कृदन्त क्रियाओं का विवेचन तो आगे उत्तरार्द्ध में होगा । यहाँ संज्ञा-विशेषण आदि से संबन्ध रखनेवाली ही चर्चा चले गी ! यों समझ लीजिए कि कृदन्त प्रकर; को हम द्विषा विभक्त कर रहे हैं। पूर्वाद्ध से संबन्ध रखनेवाला अंश यहाँ यह है और उत्तरार्द्ध के श्रख्यात अंश से जितना संबन्ध हैं, वह वहीं अपि गा ! यहाँ वह झमेला ठीक नहीं।

भाववाचक संज्ञाएँ

हिन्दी कृदन्त शब्दों में भाववाचछ' संज्ञाएँ सबसे अधिक हैं । तद्धित भाववाचक संज्ञाओं का विवरण श्रागे यथास्थान आए गा; यहाँ कृदन्त भाववाचक संज्ञाएँ ही देखनी हैं ! कृदन्त और तद्धित के भाव’ पृथक्-पृथक हैं । कृदन्त ‘भाव' का मतलब है-*शुद्ध धात्वर्थ' । केवल धातु का अर्थ ‘भाव' कहलाता हैं, जिसमें न कोई ‘काल' और न कोई ‘पुरुष की प्रतीति । वक्षन-भेद भी नहीं, सदा एकवचन । यद्यपि शुद्ध भाव' में लिङ्ग-वचन का में कोई सुन्ध नही होता; तो भी एकवचन केवल व्यवहार के लिए होता है । वस्तुतः वहाँ न कोई ‘वचन' होता है, न कोई वर्ग-भेद । हिन्दी में पु० एकवचन सामान्य-प्रयोग है—औत्सर्गिक है; जैसे संस्कृत में नपुंसक लिङ्ग -एकवचन | ‘पढौं में पढ़ घातु का अर्थ पुरुष-बदन तथा प्रेरण ( अज्ञः ) से मिला हुआ है। जान पड़ता है कि मध्यम पुरुष को पढ़ धातु के अर्थ में प्रवृत्त किया जा रहा है । वचन भी स्पष्ट है। पहूँ गा” कडूने से पुरुष-६चन के साथ 'काल' की भी प्रतीति होती है । इस लिए यहाँ धात्वर्थ शुद्ध” थी अकेला नहीं हैं। कतरनी' कहने से कारक की प्रतीति होती है । धार्थ के साथ-साथ ‘कृ’ कारक दिखाई देता है जिससे कुतरा जाए, उसे 'करनी' काइवे हैं । इस लिए यहाँ भी शुद्ध धात्वर्य नहीं है । परन्तु पढ़ना इतरना जाना आना आदि घातुब शुब्र्यों से अन्य कोई भी अर्थ सामने नहीं आता--न पुरुष, न वचन, न लिङ्ग , न फारक,