पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३१२

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न आज्ञा-प्रार्थना आदि । केवल धात्वर्थं ( शुद्ध क्रिया) की -प्रतीति होती है। इसी लिए ऐसे शब्दों को भाववाचक संज्ञा हिन्दी में कहते हैं। संस्कृत क्री ‘अध्ययनम्, पठनम्, शयनम् आदि भाववाचक संज्ञाएँ हैं। यानी क्रिया के सामान्य रूप को ‘भव' कहते हैं और उस के लिए प्रयुक्त होनेवाली संज्ञाएँ भाववाचक संज्ञाएँ कहलाती हैं । “पढ़ना-लिखना कहने से घात्वर्थ के अति- रिक और कुछ मालूम नहीं होता । ‘पढ़ना' आदि में इन भावाचक कृदन्त प्रत्यय है और हिन्दी की सर्गः पुंत्रिभक्ति (पु० एकवचन) 'अ' 7 ) सर्वत्र स्पष्ट है । संस्कृत में नपुं०-एकवचन औत्सर्गिक है-“पठनम्'। यानी हिन्दी में पढ़ना' आदि शब्दों में विभक्ति से पुंस्त्व तथा एफवचन दिक्षित नहीं है। पुंस्व-स्त्रज्ञ तथा संख्या ( वचन ) कुर्ता-कर्म जैसे कारों में होता हैं, क्रिया में नहीं । क्रिया में न रूत्व, न पुंस्त्व और न कोई संख्या । ऋत तथा कर्म की थे उपाधियाँ गौणतः क्रिया-शब्द में आ जाती हैं--राम पढ़ा हैं? ‘सीता पढ़ती है’ ‘लड़कें पढ़ते हैं और राम ने पुस्तक पढ़ी', ' पढ़ा’ ! वस्तुतः क्रिया में यह सव कुछ भी नहीं । 'पढ़ना' अदि कहले से केवल धात्वर्थ स्पष्ट होदा है और कुछ नहीं है जब किसी संज्ञा का उच्चार होगा, तो कोई न कोई लिङ्ग-वचन जरूर हीं बोलना पड़ेगा ! सो, कृदन्त भाववाचक्क संज्ञाओं में कहीं पु० एकवचन रहता है, और कहीं स्त्रीलिङ्ग एकवचन । [ भाववाच्य ‘क्रिया-शब्द' ( तिङन्त ) सदा अन्य पुरुष एकवचन में रहते हैं; युद्द क्रिया-प्रकरण में अरगा । ] । भाववाचक संज्ञाएँ एकवचन पुल्लिङ्ग-~- राम झा पढ़ना, सीता का पढ़ना, लड़कों को पढ़ना मेरा पढ़ना, तेरा पढ़ना, उनको पढ़ना, कैसी का उड़नद सभी भेदकों मैः-- लड़कों के पढ़ने धे, सीता के पढ़ने में । हमारे पढ़ने का, दुन्हारे पढ़ने को | मुन्न जगह धुल्लिङ्ग प्रवचन । संस्ड की ही पद्धदि है ( ० ० भेद छोड़ कर }--- बालकानामध्यवनेन, सीतायाः अध्ययने अस्माकमध्ययनस्य, युस्माकमध्ययनम्,