पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३१३

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संस्कृत में बहुवचन भी झा जाता हैं:- ‘प्रवर्तन्तामध्ययनानि चिन्नानि च रनु हिन्दी में ऐसा न होगा ! सदा पु० एकवचन रहेगा---- पढ़ना-विचारना अब प्रारम्भ हो बर्तन्तामध्ययनानि की तरह पढ़ने जारी हो ऐसा कभी न होगा---

  • पढ़ना जारी हो रहे । संस्कृत में अध्ययनानि' जैसे प्रयोग कृत या फर्म

ॐ हुत्व को ध्यान में रख कर हैं । हिन्दी की प्रवृत्ति है कि जब ‘भाव' ही है, तो सदा एकचन ही ठीक बस, यह अन्तर है। न . तद्धित भाववाचक संज्ञा भी हूँन्दी में एकवचन ही रहती हैं । परन्तु सद्धिन का ‘भाव” दूसरी दज है । इहाँ धात्वर्थ' जैसी कोई बात ही नहीं । वह को संज्ञा से संज्ञान्तर मा विशेषण से संज्ञा आदि बनाने का स्थल है ! वहाँ

  • व' का मतलब है-स्वरूपाख्यान ! ‘पण्डित' का अद-ण्डित्य या

इन्डिलाई । स्वरूपाख्यान में भी सदा एकवचन रहेगा और वर्ग-भेद भी न ----राम की चतुराई देसी, सीता की चतुराई देवी, बच्चों की चतुराई देखः । इसी तरह-राम का पाशिंडल्य, सीता का पाण्डित्य, दाक्षिणात्यों का इत्य ।। कृदन्त भाववाचक संज्ञाएँ जब स्त्रीलिङ्ग होती हैं, तब 'न' में पुविभक्ति नहीं लगती जह, सूजन, उलझन उड़द, इहचान । मुंसिक्ति ! दो, तो पुल्लिंग .... नई, यूजना, उलना, उन्ना, पहचानना ।। परन्तु दोनों व अर्थ-भेद रखते हैं। अर्थ-भेद के बिना तो हिन्दी में ब्द- होश ही नहीं। संस्कृत में भी भाववाचक संज्ञा स्त्रीलिङ्ग होती हैं--प्रदर्शन, प्रेरणा मानना । थारी 'न' के 'ना' कर दिया गया प्रवर्तन' का ‘बर्तना' । हिन्दी में इस के उलटे, ‘ना की गई 'नू’ स्त्रीलिङ्ग में होता है; भा’ युल्लिङ्ग

  • ---सन' लिङ्ग, बहुना' पुल्लिङ्ग ।