भाषा में यह ग्रन्थ लिखा, जिसे बहुत से विद्वानों ने पसन्द नहीं किया। वे
गम्भीर भाषा चाहते थे । परन्तु मेरा कहना यह कि यहाँ तक काम चल
स, साधारण भाषा रखनी चाहिए। कुछ लोग दूसरे सिरे पर हैं। डा०
सिद्धेश्वर वर्मा ने मेरे राष्ट्रभाषा के प्रथम-व्याकरण' में ‘एंविभक्ति' शब्द को
दुरूह बतलाया था । पर इस की ऊई दूसरा कौन शब्द दिया जाता ? ।
साधारणतः शिष्ट जन् ‘स्पृहणीय' आदि संस्कृत कृदन्त विशेषणों का
प्रयोग करते हैं । इस की जगह कोई कोई ‘राहनीय' भी लिखते हैं । लिखें;
कोई इर्ज नहीं । ‘सराह' हिन्दी धातु से भी ईय' कृदन्त मान लिया ।
परन्तु अनुकरणीय दयनीय’ ‘चिन्तनीय' जैसे सहस्रशः संस्कृत कृदन्त की
जगह हिन्दी के कौन से कृदन्त ले गे ? अनुकरण करने योग्य छौन बोले गा ?
विधेयता में तो चल भी जाएगा-- “श्राप का यह काम हमें सब के अनुकरण
करने योग्य है । परन्तु उददेश्यता में क्या हो गा ? ‘राम की अनुकरणीय
उदारता ने हम सब को प्रभावित किया । इसे 'रम झी अनुकरण करने योग्य
उदारता ने कह कर वाक्य बिगाड़ा ने जाएगा । यथास्थान और यथावश्यक
संस्कृत कृदन्तों का ग्रहण हिन्दी में है ।
| संज्ञा श्रों की ही तरह कृदन्त विशेष भी हिन्दी में बनते-चलते हैं । दो-
एक उदाहरण लीजिए ।
'त' प्रत्यय कर्तृ-प्रधान वर्तमान काल के विशेषण बनाता है । त-प्रत्य-
यान्त विशेषण प्रायः द्विरुक्त हो जाते हैं या फिर सामान्य ( काल-निरपेक्ष )
‘हुआ' साथ रहती हैं--
१-~-राम पुस्तक पढ़ता हुआ हम से बातें भी कर रहा है।
२-- सीता पुष्य चुत-चुनती कुछ गाने लगती है।
३- लड़के विद्यालय जाते-जाते थक जाते हैं।
४-लड़कियाँ कुछ याद हुई जा रही हैं
५-लड़के काम करते हुए पढ़ते हैं ।
‘लड़कियाँ बहुवचन का विशेषण ‘ाती हुई बहुवचन ही है।
‘हुई' की 'ई' अनुनासिक इस लिए नहीं कि झारे हैं। सब का
काभ देने में समर्थ है ! अनेक स्वर अनुनासिक कर देने से भाषा
मिममिनी न हो जाए; इस लिई यह व्यवस्था ! प्रत्येक डिब्बे में इन
लना बेकार है । श्रागे एक इंजन ( ‘हैं ) सब को खींचे लिए जा रहा है।
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