पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३२२

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हो जाता है ---‘या किताब तो मेरी पढी सै'। यही 'सै' कुरुजनपद में 'है' है। और उधर लगे हुए राजस्थान में 'ॐ' है। राजस्थान में कर्म-प्रधान ‘ब- कारान्त विशेषणों में भी ‘ड' प्रत्यय लग जाता है । ‘ड' में मुंविभक्ति ” और स्त्रीलिङ्ग में 'ई' । पुल्लिङ्ग बहुवचन में ‘अ’ होता ही है- १-पुस्तक राम की पढ्योड़ी छे। २---ग्रन्थ सीता को पढ्योड़ छे ३--सब काम म्हारा करयोड़ा छे ४-सब अाम म्हारर खायोड़ा छे।

  • श्री' असे होने पर य’ का लोई नहीं होता । ब्रजभाषा में भी
  • देख्यो-सुन्यो सब मेरो पर्यो है। परन्तु बहुवचन में देखे-सुने’ राष्ट्रभाषा के

अनुसार । इतना तो स्पष्ट है कि 'त' तथा 'य' आदि कृदन्त-प्रत्यय राष्ट्रभाषा में, व्रजभाषा में तथा राजस्थानी में समान हैं और पूरब की अवधी आदि में भी । केवल संज्ञा-विभक्ति का अन्तर है और राजस्थान में “हुशा' सहायक क्रिया की जगह एक प्रत्यय ही बना लिया है----‘कृ’। इस में 'ओ' विभक्ति लग कर

  • डो'-ड्रा'-‘डी’ रूप । राष्ट्रभाषा में ‘अ’ पुंविभक्ति है, कृदन्त प्रत्ययों में लग

कर-गया-श्रया आदि रूप बनाती है। राजस्थानी मैं ‘ओ' पुंप्रत्यय या पुंविभक्ति है, जो उन्हीं कृदन्त को ‘गयो’-‘अयो' जैसे रूप में कर देती है । व्रजभाषा दोनों के बीच में है, दोनो से प्रभावित है; इस लिए एकवचन राजस्थानी के अनुसार और बहुवचन खड़ी-बोली ( राष्ट्रभाषा ) के अनु- सार्-‘गयो’-राये ( या गए ) ! राजस्थानी में ‘गयोड़ो' विशेषण एकवचन और गयोड़ा बहुवचन है-जयपुर गयोड़ा लड़का' । ब्रज में जयपुर गए छोरे’ होगा और राष्ट्रभाषा में भी ‘जयपुर गए हुए लड़के' ! केवल संज्ञा- विभक्ति में अन्तर है, य’ सर्वत्र समान । राजस्थानी का श्रो’ उधर गुजरात तक चला गया है । ब्रज में भी इस का पर्याप्त प्रभाव है। ‘अ’ पुविभक्ति खड़ी बोली' की पंजाब और उस के आगे तक चली गई है। पूरब की अवधी अदि में कहीं-कहीं किसी शब्द में ‘अ’ के दर्शन हो जाते हैं, 'ओ' के नहीं । भूतकाल का 'अ' प्रत्यय खड़ी-बोली की ही छाया है-- वा-‘गवा पा’ ‘भा' आदि। स्त्रीलिङ्ग