चक प्रत्यय ( ‘ती’ ) के आगे फिर ( दूसरा ) भाववाचक प्रत्यय लगाना ठीक
नहीं है; गलत हैं और यह गलती ब्रजभाषा में तथा खड़ी बोली' की पुरानी
कविता में मिलती है ! ऐसा मेरा भी विचार था, जो कि ब्रजभाषा--व्याकर
में, सन् १९४३ में, लिख भी दिया था ! इस के अनन्तर अन्य लोगों ने भी
यही दुहरा दिया कि ‘सुन्दरताई आदि प्रयोग गलत हैं, क्योंकि किसी भाव-
वाचक प्रत्यय के अनन्तर दूसरा भाववाचक प्रत्यय नहीं लग सकता । हेतु
ठीक है- किसी भाववाचक प्रत्यय के आगे दूसरा भाववाचक प्रत्यय नहीं
लग सकता; परन्तु सुन्दरताई में वह बात नहीं है-दो भाववाचक प्रत्यय नई?
हैं; यह मुझे अभी कुछ दिन पहले जान पड़ा | ‘सुन्दरताई' में 'सुन्दर' शब्द
से “ताई भाववाचक प्रत्यय है। इस ताई की विकास-कथा सुनिए ।
किसी समय, इस देश की मूल-भाषा में भाववाचक ताति' प्रत्यय का
चलन था। कालान्तर में इस का प्रयोग कम होने लगा। वेदभाषा में
- शिव’ 'अरिष्ट' आदि कुछ ही शब्दों में इस के दर्शन होते हैं । *शिवतातिः
वैदिक पद का अर्थ है-“शिवत्व' ‘शिवता' ।। आगे चलते-चलते ताति' प्रत्यय लुप्त ही हो गया; परन्तु अपनी सन्तति
- ता’ छोड़ गया। लौकिक या आधुनिक संस्कृत में 'ताति' का 'ता' मात्र
अंश भाववाचक तद्धित प्रत्यय के रूप में चलता है और यही हिन्दी में तथा अन्य भारतीय भाषाओं में गृहीत है। ‘ताति’ का कहीं पता नहीं ! *शिवता ‘सुन्दरता' आदि में 'ता' उसी ‘ताति’ का श्राद्य अंश है ।। परन्तु मूल-भाषा' की उस अनइच्छिन्न और नैसर्गिक धार में बेहतर लुढ़काइ “ताति' प्रत्यय बढ़ता गया। आगे बढ़ते-बढ़ते वह घिस कर कुछ ऐसा बन गया, जैसे हिमालय के बड़े पत्थर गंगा की तेज धारा में बहते- लुढ़कते छोटे-छोटे गोल-मटोल ‘नद्दादेव' बन जाते हैं । थे छोटी-छोटी बटियाँ कितनी मोहक होती हैं ! इन्हें देख कर कौन सहसा कह दे गा कि बड़ी-बड़ी शिलाएँ ही ये इन रूपों में हैं ! परन्तु हैं । अन्यथा कहाँ से आ गई ? सो, मूलभाषा' का 'ताति' ( जो कि आधुनिक संस्कृत में 'ता' के रूप में है }, प्राकृत-धाराओं में न जाने कहाँ कैसा बनता जनता हिन्दी में साई रूप से अा गया । ताति’ के ‘ति' का व्यञ्जनश उड़ गया । स्वर प्रबल होता है; सो बना रहा । ठीक उसी तरह, जैसे कि भवति'.--‘होति-- ‘होदि से “होई रह गया । हिन्दी की नैसर्गिक प्रवृत्ति शब्दों