पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३३१

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को प्रायः दीन्ल कर देने की है । सो ‘ताइ’ बन गया ---‘ताई । यही “ताई है “सुन्दरलाई' आदि में । ‘कास कहाँ निज मूखलाई । परन्तु लोग यह भूल जाए कि 'ताई' एक स्वतंत्र प्रत्यय है । सब लोग उपर्युक्त ढुंग से ‘सुन्दरताई आदि को प्रासादिक प्रयोग मकने लगे ! फलतः ज्ड छूना में इस हाई’ का चलन नहीं है । किसी अप्रचलित शब्द को 54रशः जबर्दस्ती भाषा में जलाए; यह हो नहीं सक्षदा । हमारा भी वैसा कोई विचार नहीं है। राष्ट्रभाषा में ‘ाई’ को फिर से हम चलाना नहीं चाहते । प्रत्यय-विकास का क्रम र दिखाने के लिए यह सब लिखा गया है । । राष्ट्रभाषा में 'ताई' तो नहीं; परन्तु इस की सन्तति अाई झाप बराबर देखते हैं---‘चतुराई ‘निठुराई आदि । यानी “लाई’ का अवशिष्ट व्यञ्जन । बिस गया और ‘ाई मात्र रह गया ! आगे और भी संक्षेप हुआ । आई' का श्र’ भी घिर गया और 'ई' मात्र भाववाचक प्रत्यय रह गया---- सावधान’ ‘होशियारी’ ‘बेवकूफी' आदि । यानी 'आई' तथा 'ई' ये दोनों है रूप हिन्दी में चल रहे हैं । इस तरह हिन्दी में प्रचलित कौन सा शब्द या शब्दांश ‘मूलभाषा से क्रिस तरह घिरता-मॅजता किस-किस पड़ाव पर रूकता-ठहरता अाया हैं; यह सब देखना-भालना भाषा-विज्ञान का काम है, निरुक्त का काम है और कठिन काम है। व्याकर;"शास्त्र को अपनी ही बहुत काम हैं । यहाँ प्रसंगप्राप्त एक चर्चा कर दी गई है । तद्धित प्रत्यय विविध अर्थों में होते हैं । शब्दों के ये रूपान्तर विविध संबन्धित अर्थ प्रकट करते हैं । यह ‘संबधित' शब्द गलत है, या सही; और सही है, तो फिर कृदन्त है या तद्धिान्त; ऐसी बातें भी सामने आएँगी । एकत्रित' शब्द शुद्ध है, या अशुद्ध; इस पर भी विचार करना होगा । । हम पीछे अनेक बार कह आए हैं कि हिन्दी एक स्वतंत्र भाया है; इस का क्षेत्र बहुत व्यापक है; इस के अपने निश्स हैं; अपने कानून हैं । संस्कृत से इस का अविच्छेद्य संबन्ध है, जैसा कि अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं फो; परन्तु इस का यह मतलब नहीं कि संस्कृत के सब विधि-निषेध यहाँ ज्यों के त्यॊ चलें । हम इस पर यहाँ थोड़ा-सा विचार कर के ही आगे बढ़ेंगे, तो ठीक होगा । .