पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३३२

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‘संबन्धित’ शब्द ही पहले लीजिए । संस्कृत में संबद्ध तथा संबन्धित दोनों बनते; परन्तु संबन्धित' में प्रक्रिया-गौरव है; इस लिए ( कृदन्त ) संबद्ध’ शब्द ही चलता है । हिन्दी में संबन्ध’ शब्द इतना प्रसिद्ध है कि कुल-मजदूर भी सरलता से समझ लेते हैं । इस सम्बन्ध’ से तद्धित सुप्रसिद्ध “इत’ प्रत्यय कर के संबन्धित' बना-समझ लेना अति सरल है । यहाँ ‘लम्’ उपसर्ग और “बन्ध' धातु तथा 'त' प्रत्यय और फिर इस ‘त’ को ‘ध’ होना; धातु के ‘धु’ को ‘द’ बनना और फिर नू' का लोप होना; यह सब केवल हिन्दी जानने वालों के लिए ऐसा सिरदर्द है, जिससे कोई लाभ नहीं । संबन्ध’ से तद्धित प्रल्थ इत’ किया और संबन्दिर' तयार । संस्कृत शब्द

  • संबद्ध का तद्रूप प्रयोग जो लोग करें, करते रहें। इसे गलत कौन कहेगा ?

सब लोग समझे भी लेंगे । परन्तु संबन्धित' को कोई गलत नहीं कह सकता । संस्त में शब्द-संबन्धी विस्तार के लि। “विस्तर अाता है--विस्तरेणु माया प्रोक्तम् । यहाँ विस्तरेण की जगह ‘विस्तारेण न हो के गा; गलत हो जाए या । परन्तु हिन्दी में बिस्तर गलत हो गा; ‘विस्तार' चलता है। ‘विस्तरेण मया प्रोक्तम्' का हिन्दी-अनुवाद हो गा–विस्तार से मैं ने कहा है। “विस्तर से मैं ने कहा है ऐसा हिन्दी में न चले गा---कोई भी नहीं चला सकता। यह माय-भेद है। हिन्दी ने संस्कृत से थह् मार्ग-भेद क्यों किया; यह सब चूर्वपीठिका में विस्तार से बतलाया गया है । | इसी तरह तद्धित ‘ईय' प्रत्यय हिन्दी में संस्कृत का हैं। प्रान्तीय, केन्द्रीय, राजकीय अदि तद्धितान्त संस्कृत शब्द ज्यों के यों ( तद्रूप ) चलवे हैं । संस्कृत में ‘विस्तर' तथा विस्तार कृदन्तों की तरह राष्ट्रिय तथा राष्ट्रीय' ये द्विरूप शब्द विषय-भेद से चलते हैं। हिन्दी ने जैसे बिस्तर की जगह भी ‘विस्तार' ही रखा, उसी तरह राष्ट्रिय का सर्वथा परित्याग कर सर्वत्र राष्ट्रीय रखा है-~राष्ट्रीय ऋ । संस्कृत में राजा के साले को किसी समय राष्ट्रिय' कहते थे-राजश्यालस्तु राष्ट्रियः । सम्भव है, पहले संबन्ध-सामान्यू प्रकट करने के लिए भी कभी राष्ट्रिय कुछ चल रही हो । परन्तु जब राजा के साले को 'राष्ट्रिय' कहने लगे, तब अन्यत्र राष्ट्रीय का चलना ही ठीक समझा गया । हो कता है कि राष्ट्रीय' के अर्थ में भी ( संस्कृत } राष्ट्रिय' ही को ग्रहण कर ले। परन्तु हिन्दी ने राष्ट्रीय' ही ग्रहण झिया, एक सीधा रास्ता पसन्द कर के । यह ईय’ प्रत्यय संस्कृत शब्दों में ही लगता है। अन्यत्र 'ई' लवासा है शहरी, देहाती, बरा झादि। यई ‘ई उस 'ई' का घिसा हु रूप