पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३३३

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{ २८८ ) है। केन्द्रीय' तद्धित ‘ईय' से है और प्रशंसनीय' में ‘ईय' (अनीय) कृदन्त प्रत्यय है । “केन्द्र एक संज्ञा है और प्रशंस्’ क्रिया (धातु) । ‘प्रशंसा से कोई प्रत्यय होता, तब अवश्य उसे “तद्धित' कहते; जैसे कि संबन्धित'। यह कृदन्त ईय' (अनीय) भी संस्कृत (धातु') शब्दों से ही होता है-पठनीय, विवेचनीय आदि । सराहनीय' जैसा एकाध अपवाद कहीं मिल सकता है। परन्तु

  • सराहनीय’ की नकल पर पढ़नीय’ ‘खेलनीय' आदि नहीं गढ़े जा सकते;

यह सब कृदन्त प्रकरण में आए गा । यहाँ इतना समझ लीजिए कि ‘ईय प्रत्यय तद्धित में है और कृदन्त में उस का आभास है । दोनो के रूप एक हैं: पर चीजें दोनो भिन्न हैं । तद्धित को 'ई' संबन्ध बतलाता है और कृदन्त का ईय' विधि श्रादि । विधि क्रियाओं में ही होती है; संज्ञा-विशेषणों में नहीं । सो, दोनो ईय’ दो भिन्न चीजें है । हिन्दी में बाला’ भी ऐसा ही है । टाँगेवाला, में ‘वाला' तद्धित प्रत्यय है; पर गाड़ी छूटने वाली है' 'राम फलकत्ते जाने ही वाला था कि तार आ गया' इत्यादि में ‘वाला’ कृदन्त है । छटना’ जाना' आदि क्रियाओं को काल बतलाता है । पर पढ़ने वाले लड़के खेलते कम हैं। यहाँ ‘वाला' तद्धित है । ऊपर कहा गया है कि संस्कृत शब्दों से ‘ईय' प्रत्यय होता है; अन्यत्र ई-केन्द्रीय’ और ‘कन्नौजी' । केन्द्रीय सभा' और 'कन्नौजी बोली' । ‘कन्नौजीय' न हो गी । परन्तु संस्कृत शब्दों से हिन्दी का अपना ई' प्रत्यय होता है-वालापुरी खरबूजे' और 'नागपुरी सन्तरे' । यहाँ 'ज्वालापुरीय तथा नागपुरीय' न हो गी । परन्तु ‘पर्वत' से ‘पर्वतीय' हो गा; ‘पर्वती’ नहीं । ‘पहाड़' से अवश्य पहाड़ी' हो गा ! मतलब यह निकला कि व्यक्ति- चान्चक ‘ज्वालापुर’ ‘नागपुर' आदि ( नगर-विशेष ) से ही 'ई' प्रत्यय होता है । परन्तु ‘काशीनरेश ने रामनगरीय जनता का विशेष ध्यान रखा है, यहाँ

  • ज्वालापुरी जनता की तरह ‘रामनगरी जनता न हो गा |

भाववाचक्र हिन्दी-तद्धित 'ई' प्रत्यय संस्कृत सावधान' आदि शब्दों से भी होता है--‘सावधानी' । परन्तु 'चतुर' आदि से “आई” हो गा-चतुराई। यहाँ 'ई' न हो गा---'चतुरी' न चले या । 'चातुरी' माधुरी आदि में यह हिन्दी का 'ई' नहीं है। ये संस्कृत भाववाचक संज्ञाएँ ( संस्कृत-प्रत्ययों से निष्पन्न ) हिन्दी में तद्रूप प्रयुक्त होती हैं ।