पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३३४

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  • सावधान' से 'ई’ और ‘चतुर' से 'आई' यह बखेड़ा-सा लगे । ।

परन्तु शब्द-प्रवृत्ति को कोई क्या करे ? चतुराई' की तरह ‘सावधानलाई कोई चला नहीं सकता और न *सावधानी' की तरह चतुरी' ही । श्रवण- सुखदता का ध्यान समझिए । “सावधान' स्वतः इतना लम्बा शब्द है ! “आई” से और भी बढ़ कर उद्वेजक हो जाता । “चतुर-“चतुराई में वैसी बात नहीं है। यह चीज संस्कृत-प्रत्ययों में भी है । चतुर' से 'चतुरता' बन कर चलता है-'चातुर्थ्य' भी । परन्तु ‘पण्डित' से 'पण्डितता' नहीं बनता-- चलता। पाण्डित्य' चलता है। हिन्दी में ( पौरोहित्य जैसे अर्थ में $

  • पंडिताई’ चलता है। विद्वता के लिए हिन्दी में भी पाण्डित्य' चलता

है। तो, ‘पण्डित' से 'ता' और 'वहो कर ‘पण्डितता' तथा 'पण्डितत्व क्यों नहीं चलते है इस लिए कि कानों को भूले नहीं लगते । 'त' के अनन्तर तुरन्त दूसरा ‘त? बुरा लगता है । पण्डितता' तथा 'पण्डितत्व' अच्छे नहीं लगते । परन्तु ‘विद्वत्ता' का खूब चलन है; यद्यपि ‘विद्वत्व' का कतई नहीं है ‘द्वत्व' बोलने में अच्छा नहीं लगता । पाण्डित्य' हिन्दी में चलता है; परन्तु वैदुष्य' नहीं । संस्कृत में ‘वैदुष्य' चलता है; पर ‘विद्वत्व' ‘पण्डितता' या ‘पण्डितत्व' वहाँ भी नहीं । व्याकरण से बन सब सकते हैं; पर चलने हो, तब तो ! जिस सिक्के का चलन न हों, उसे टकसाल में क्यों ढाला जाए ? दल सकता है, यह दूसरी बात है। पर ६लना मूर्खता ही तो होगी । | हिन्दी की यौगिक प्रक्रियाओं में -( तद्धित, समाङ, प्रेरणा श्रादि में)- देखा जाता है कि मूल की दीर्घ ( प्रथम ) स्वर प्रायः हस्व हो जाता है- ढीठ-डिठाई, दुधारा, पिलाना आदि । “लावण्य' के अर्थ में “लुनाई’ कविता में चलता है-“लोन' से लुनाई । परन्तु चौडा' से चौड़ाई बनता है ! यहाँ ह्रस्व ( औ, को ‘उ') नहीं होता । “ऐ’ ‘औ’ प्रायः ज्र्यों के त्यों रहतें हैं ! पूरे ‘गुरु' हैं। ५ । 'आई' प्रत्यय भाववाचक है । परन्तु दिल में खटाई डाले द’ ‘एक सेर मिठाई ले अा अादि में (खटाई-मिठाई) में वह (भाववाचक 'आई') नहीं है। यहाँ ‘खटाई अमचूर था इमली आदि के लिए है। जहाँ खटाछ हो, वह खटाई । 'खट्टा' विशेषण से यहाँ 'आई' प्रत्ययतद्वान्' अर्थ में है । जहाँ खटास हो, वह 'खटाई’ ! खटाई' जाति-वाचक संज्ञा हुई। इसी तरह

  • मिठाइ जहाँ ( खाने की बढ़िया चीजों में ) मिठास हो, वह मिठाई-

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