पेड़ा, बर्फी, गुलाबजामुन आदि । यहाँ “मीठा' विशेषण से 'आई' प्रत्यय है।
मीठी चीज--‘मिठाई । भाववाचक प्रत्यय ऐसे शब्दों से आस' होता है-
खटास, मिठास है परन्तु कुड़वा से अस? नहीं, ‘आइट' प्रत्यय होता है--..
‘कड़वाहट' । इसी तरह 'चिरपिराहट' ! खट्टा-मीठा' एक साथ, कड़वा'
चिरपिरा एक साथ ।
संस्कृत के 'व' ‘ता' आदि तद्धित प्रत्यय संस्कृत शब्द में ही लगते हैं,
संस्कृत-व्याकरण के ही अनुसार ! यों भी कह सकते हैं कि जातीयता, नेतृत्व
पाण्डित्य आदि भाववाचक संज्ञाएँ बनी-बनाई हिन्दी ले लेती है और तद्रूप
प्रयोग करती है। किसी भी दूसरे भाषा के शब्दों से ये संस्कृत तद्धित-प्रत्यय
नहीं होते । परन्तु हिन्दी में प्रचलित एक 'महानता' शब्द विचारणीय है।
यह अपवाद सही; जैसे कि कृदन्त “सराहनीय' । “यह उन की महानता ही
है' की जगह यह उन की महत्ता हैं कुछ ठीक क्षमता भी नहीं है । ‘महत्ता'
महत्व' और 'महानता' में बुद्धिशम्य अन्तर है। यदि किसी को कुछ भी
अन्तर न जान पड़े तो वह यथेच्छ प्रयोग कर सकता है ! शब्दों के प्रयोग
में ऐसे अन्तर विचारणीय हैं। पहले लोग पचों पर ही रख कर खाते-पीते
थे ! वृक्ष-पत्रों में सीके लगा कर लोग ‘पात्र' ( पक्षल-दोने ) बना लेते थे।
पत्रों से बने ‘पात्र' । आगे ताँबे-पीतल तथा सोने-चाँदी के बर्तन बनने लगे;
पर नाम ‘पात्र’ ही रहा ! हिन्दी ने उस पुराने अर्थ के लिए ‘पता' से तद्धित
- पत्तल बना लिया ।“पात्र' तथा 'पञ्चल में कितना अन्तर है ।
यह विचारणीय है कि ‘महानता हिन्दी में शुद्ध समझा जाए, या अशुद्ध ! •संस्कृत में ‘महत्’ ‘प्रातिपदिक' ( सूल शब्द ) है और उस में ‘ता प्रत्यय लग कर ‘महत’ बनता है। हिन्दी में संस्कृत के ऐसे शब्द प्रथमा विभक्ति के एकवचन में निष्पन्न मूल शब्द के रूप में गृहीत हैं। यानी हिंन्दी में महान्, पिता, राजा श्रादि मूल शब्द' ( प्रातिपदिक' } के रूप में हैं; महत्, पितृ तथा राजन् नहीं । 'मेरे पितृ का घर राजन् के अधिकारी ने ले लिया’ गलत प्रयोग हो गा । तो, जब कि “महान्' शब्द हिन्दी में गृहीत है, तो उस से ‘ता' प्रत्यय हो गया । इन' सस्वर भी कर लिया गया । यों ‘महानता का समर्थन अपवाद-रूप से किया • जा सकता है। अन्यत्र बुद्धिमत्ता' जैसे रूप ही चलें बो; ‘बुद्धिमान्’ से
- ता' प्रत्यय न हो या | ‘बुद्धिमत्ता' से 'बुद्धिमत्’ निकाल कर हिन्दी में न
चलाया जा सके गो-बुद्धिमानु' ही चले गा । गोरक्षा अदि में 'गो' देख