कर लोरा लिख देते हैं । हमारी माता है। यह गलत है। ‘ौ इमारी
साता है” शुद्ध है । हाँ, ‘गौसेवा' हिन्दी का अपना शब्द कहा जा सकता है ।
हिन्दी-गृहीत ‘गौ’ शब्द से 'सेवा' का समास ‘गौसेवा' । गोरक्षा संस्कृत और
गौसेवा गौरक्षा हिन्दी ।।
संस्कृत के तद्धित-प्रत्ययौ को ( कुछ रूपान्तरित कर के ) तद्भव रूप में
हिन्दी ‘अपने' या संस्कृतेतर शब्दों में लगाती है। ऐसे ( ‘तद्भव’ ) प्रत्यय
संस्कृत शब्दों में नहीं लगते । ‘दयालु’ ‘कृपालु अादि शब्दों में इष्ट अालु
प्रत्यय को हिन्दी ने अपनी प्रकृति-प्रवृत्ति के अनुसार दीर्घान्त कर लिया और
‘अपने शब्दों में इस का प्रयोग करती है-झगड़ालू । ‘धनवान्' आदि में
इष्ट वान्' प्रत्यय को हिन्दी ने अपनी प्रकृति के अनुसार स्वरान्त वान’ कर
लिया, जिस का प्रयोग अपने शब्दों में किया जाता है । आड़ीवान’
‘पीलवान’ अदि शब्दों में यही है। मतलब यह निकला कि संस्कृत से आए
हुए ( तद्रूप ) शब्दों को छोड़, शेष सभी हिन्दी-गृहीत शब्दों से ‘वान' प्रत्यय
होता है। सीधा मार्ग है; जैले मैहरवान’ उसी तरह गाड़ीवान' । संस्कृत
प्रत्यय में भेद है–धनवान्, ज्ञानवान् और बुद्धिसान्, न्वक्षुष्मान् । “वान'
सर्वत्र एकरस रहता-चलता है।
| इसी वान' के न’ को विकल्प से 'ल' भी हो जाता है । संस्कृत में भी न’
का ‘ल' होना प्रसिद्ध है। अन्तर यह कि वहाँ अनुनासिक ‘हँ होता है;
हिन्दी में निरनुनासिक ‘ल' भी । इस ‘ल' में फिर हिन्दी की पुंबिभक्ति लग
जाती है—गाड़ीवाला' | स्त्रीलिङ्ग में ‘अ’ को ‘ई गाड़ीवाली' ! 'वान
स्त्रीलिङ्ग में ईकारान्त न हो या । ‘वान' प्रत्यय हिन्दी के अकारान्त पु०
शब्दों से प्रायः नहीं होता । यहाँ बाला' चलता है । जब यह प्रत्यय लगता
है, तो प्रकृति के ‘अ’ को ‘ए’ हो जाता है----टाँगेवाला, इक्केवाला ।
बहुवचन में कहीं ‘ओं विकरा भी आ जाता है-'हाथियों वाला जंगल
- मंत्रियों वाला बँगला' इत्यादि। परन्तु अन्यत्र प्रायः यह विकरण ( ' )
लुप्त हो जाता है । जिप्त के बहुत से टाँगे हों, वह भी टाँगेवाला । टाँगों- वाला' न हो गई । “सब पुस्तकों वाले बेचते हैं गलत प्रयोग है ‘पुस्तके बेचने वाले ठीक है । *पुस्तक वाले' भी ठीक हैं। कोई एक ही पुस्तक बेचने नहीं बैठता है। ‘वाला' में एक और भी खास बात है । इस का प्रयोग विश्लिष्ट भी होता है। गाड़ीवान श्रीदि को कभी भी ‘गाड़ी वान’ नहीं लिख सकते;