पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३३८

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में ‘पितावचन' जैसे सामासिक पद मिलते हैं—पितृवचन' आज कल अधिक चलता है। तद्धित--प्रत्ययों पर विचार करते समय भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का भी ध्यान रखना चाहिए। ‘बिक्री में तद्धित 'ई' प्रत्यय नहीं है; प्रत्युत ‘विक्रय’ का यह विकास है ‘विक्री' } हिन्दी में कोई बिक्र' शब्द नहीं है, जिस से 'ई' प्रत्यय माना जा सके। संस्कृत व हिन्दी में 'ब' हो ही जाता है और 'य' को इ-ई भी होना प्रसिद्ध है । यू’ को ‘इ' होने को संस्कृत में सम्प्रसारण कहते हैं--‘य-इष्टि । सो, “विक्रय' के थ’ को ‘ई हो गया और फिर मध्ये श्वर का लोप हो कर ‘बिक्री । यह भाषा-विज्ञान का विषय है } स्वरूप परि- वर्तन के साथ-साथ अर्थ–परिवर्तन भी कभी देखा जाता है। कुछ पता नहीं लगा कि असल मामला क्या हैं ! यह ‘पता' या चीज है ? इस का मूल है।

  • पत्ता' } पत्ते देख कर वृक्ष जाना जाता है कि ग्राम है, या जामुन श्रादि। यदि

किसी पेड़ पर पत्त न हों, तो पहचानना कठिन है ! जिस में एक भी पत्ता झा, उसे का पता लग जाएगा । एकदम हूँछ दिखा कर पूछो कि काहे का पेड़ है ? कौन सही उत्तर दे ! पत्ता तो है नहीं ! जवाब में कहा गया, ‘पत्ता नहीं; तब क्या बताऊँ !' यही ‘पचा’ ‘पता के रूप में आकर हिन्दी में चल रहा है-पता साफ साफ लिखो। जिससे कि पत्र ठौर-ठिकाने पहुँच जाए ?? सो, तद्धितःप्रत्यर्यों से शब्दों का रूपान्तरित होना और उन से अर्थान्तर का निकलना एक बात है; किन्तु शब्द-विकास दूसरी चीज है । कभी-कभी शब्द-विकास की ही कोई चीज व्याकरण में प्रकृति-प्रत्यय रूप से विभाजित की जाती है; परन्तु बिक्री' या ‘पता' जैसे शब्दों में वह बात नहीं। कभी-कभी किसी शब्द में यह झमेला पड़ जाता है कि यह तद्धित-शब्द है, या समस्त' है ! हिन्दी का “इकवा' विशेषण ले लीजिए। इस का अर्थ है-एक स्थान पर समवेत या ‘जमा' । इस में इक' तो स्पष्ट ही एक फा वृत्ति-प्राप्त रूप है । वृत्ति' ( कृदन्त, तद्धित तथा समास आदि ) में एक को इक' हो जाता है । परन्तु असे का “हा” क्या है ? यदि यह स्वतन्त्र कोई सार्थक शब्द नहीं तो प्रत्यय है; तद्धित-प्रत्यय । 'ऋ' प्रत्यय और उस में पुंविभक्ति लग कर ‘इकट्ठा' । बहुवचन में ‘इकट्टे' और स्त्रीलिङ्ग में इकट्ठी । यों ‘इकट्टा' तद्धितान्त शब्द । परन्तु ‘ठा’ को ‘टाइँ' का घिसा हुअा रूप समझा जाए, तो फिर इकट्ठा’ ‘समस्त पद हो गा । विग्रह-एक ठाउँ ( स्थान