यूछो, 'उत्तर' और 'उधर' का क्या सामञ्जस्य ? और, यदि मान भी लें, तो
फिर इधर” तथा “किधर’ को किन शब्दों का विकास माना जाएगा ?
खैर, इस कह रहे थे कि वृत्ति में यह ‘बह कौन' को 'इ, उ, तथा
‘कि’ प्रायः हो जाता है। परन्तु ‘सा' के साथ समाप्त करने पर इन्हें ऐ, बै, कै
हो जाता है। ‘सा' शब्द संस्कृत के 'सम' का घिसा हुआ रूप है । ‘म’ का
लोप और 'स' में पुंविभक्ति-राम-सा पुत्र ‘सीता-सी पतोहू'। इसी ‘सा'
फा “थह-वह श्रादि से समाप्त हो कर ऐसा वैसा कैसा । राम का-सा
रूप-राम-सा रूप” । 'राम-स' भी सामासिक है । इस का सा रूप-‘ऐसा रूप ।
ऐसा' सामासिक पद है ।।
यह हो सकता है कि ईदृशः कीदृशः' आदि के विकास ‘ऐसा कैसा
आदि शब्द हों । परन्तु हिन्दी के व्याकरण में इन्हें पूर्वोक्त पद्धति पर “सामा-
सिक' पद बतलाना अधिक अच्छा; क्योंकि यह” और “सा' आदि रूप
पृथक्-पृथक् हिन्दी में चल रहे हैं। हिन्दी वाले झट समझ लेंगे । “ईदृशः
सभी हिन्दी वाले जानते-समझते हों; सो तो है ही नहीं ।
सारांश यह कि ऐसा' आदि शब्दों में कोई तद्धित प्रत्यय नहीं है:क्योंकि
सा' शब्द स्वतन्त्र रूप से ( उसी अर्थ में ) हिन्दी में चल रहा है ।
| हाँ, इधर, उधर, किधर शब्दों को यह, इ, और कौन से ‘घर' प्रत्यय
द्वारा निष्पन्न माना धाए शा; क्योंकि ‘धर' शब्द दिशा के अर्थ में (हिन्दी में).
प्रचलित नहीं-कहीं देखा-सुना नहीं !
| इसी तरह यहाँ, वहाँ, जहाँ, कहाँ शब्द तद्धितान्त हैं और इधर उधर
आदि की तरह ये भी अव्यय है। हिन्दी के व्याकरर्यों में यहाँ आदि में
श्राँ' प्रत्यय लोगों ने माना-लिखा है, जो ठीक नहीं । ‘ाँ' प्रत्यय होने
पर कौन' से “कहाँ कैसे बने गए ? वस्तुतः यहाँ “अहाँ' प्रत्यय है । नियम
यह बने गा कि “यइ-वह' श्रादि सर्वनामों से अधिकर-ए-प्रधान 'अहाँ प्रत्यय
होता है और प्रत्यय परे होने पर उन सर्वनामों के आद्य व्यंजन मात्र शेष
रहते हैं; और आगे झो सब अंश लुप्त हो जाता है। फिर वह शेष व्यंजन
प्रत्यय के 'अ' में मिल कर 'यहाँ-जहाँ-कहाँ' रूप बन जाते हैं । 'तौन' से
म्तहाँ भी बनता है—जहाँ-तहाँ कुश-काश पड़े थे ।' यहाँ जहाँ-वहाँ न
हो गा। अन्यत्र वहाँ प्वले गा-चलता है। वहाँ मैं गया' की जगह “तहाँ
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