मैं गया' न बोला जाएगा । परन्तु कानपुर आदि की जन-बोली में तहाँ
उइ की करते हैं? बोला जाता है । यह ‘तहाँ की जगह ‘हुअन’ भी बोलते
हैं, जो वर्ण-व्यत्यय और उ’ को वि' तथा 'भ' को अनुनासिक कर देने पर
वहाँ हो जाता है । ब्रजभाषा में नहँ-तह भी हो जाते हैं। कहाँ’ को ‘कहूँ
भी हो जाता है; परन्तु वहाँ’ को ‘यहँ नहीं होता ! शब्द-प्रवृत्ति ही तो
ठहरी ! ‘योग’ को ‘जोगी' बन जाता है; पर 'वियोगी’ को ‘विजोगी कभी
भी नहीं हो सकती ।।
कभी-कभी किसी शब्द के वजन पर भी दूसरे शब्द गढ़े ग८ हैं और
तब प्रत्यय-भेद करना हो गई । “यह सर्वनाम से प्रकार या ‘तरह' के अर्थ
मे ‘ओं' प्रत्यय हुआ और श्राद्य व शेष रह कर बाकी सब प्रकृत्यंश उड़
गया—यह + ='थों' । यो- इस तरह } जत्र ‘यों बन गया, तब जो
अदि से भी उसी तरह के रूप बने । परन्तु प्रत्यय करने पर 'जों’ ‘कों
श्रादि रूप बनते-यों का मेल बिगड़ जाता ! इस लिए शेष सर्वनामों से
य' प्रत्यय हुअा--ज्यों, क्यों । 'तौन' से 'त्यों भी; परन्तु ज्यों का साथ
देने के लिए ही --'ज्यों-त्यों कर के परीक्षा तो पास कर ली; परन्तु अब क्या
करे !' पृथक् ‘त्यों का प्रयोग न हो गर । हाँ, वह' से 'यो' प्रत्यय होता
नहीं ! होता, तो “व्यों, कैसे बनता, जिस का उच्चारण हिन्दी-प्रकृति के अनु-
कूल नहीं। इस लिए, ‘बह से यह प्रत्यय नहीं होता । “उस तरह उस
प्रकार’ अादि बोला जाता है। वैसे भी बोलते हैं--वैसे ही कर लो न !”
वैसे-उसी तरह।
भाषा-विज्ञान तथा व्याकरण का विषय-विभाजन करना कुछ बहुत कठिन
काम नहीं है । ‘द्वीज-द्वेज' तथा “दूज-तीज' शब्दों को ले लीजिए। द्वितीया-
“तृतीया तिथियों का सद्रप प्रयोग भी हिन्दी में होता है; परन्तु जनभाषा में
तथा कविता में द्वितीया’ को ‘द्वीच' 'द्वैज” तथा “दूज' भी बोलते हैं। इन में
से ‘द्वीज'-'द्वैज’ को सीधे ही द्वितीया' के विकसित रूप कह सकते हैं । यहाँ
प्रकृति-प्रत्यय के विभाजन की जरूरत नहीं। यानी यह व्याकरण का नहीं,
भाषा-विज्ञान का क्षेत्र है। द्वितीया' के मध्य अंश का लोप, 'इ' को दीर्घता
( 'ई' अथवा 'हे' ) और ‘या’ को ‘जा’ | संस्कृत आकारान्त स्त्रीलिङ्ग शब्दों
के तद्भव रूप अकारान्त हो ही जाते हैं--‘द्वीन', 'द्वैज’। पुंविभक्ति लग
ही नहीं सकती, क्योंकि मूल शब्द ( द्वितीया ) स्त्रीलिङ्ग हैं। सो, “द्वील-
द्वैज' में प्रकृति-प्रत्यय की कल्पना नहीं । परन्तु दूज-तीज' में प्रकृति-प्रत्यय
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