पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३४८

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जगह पूरब में “होति हैं। यह 'लखनउश्रा' सन्धि-रूप से लखनौ' भी लिखा जाता है । 'न' के 'अ' में और 'उ' में 'औ' सन्धि । उच्चारण वही लखनउ’ होता है, सन्धि ‘श्रौ' हो जाने पर भी । यह लखनउ' भी लखनऊका' का ही रूपान्तर है । ॐ ह्रस्व और का' से 'कू' का लोप । ‘लखनउमा' के रूप बदलते नहीं है; क्योंकि पूरब में रूप बदलने की (आका- रान्त पुल्लिङ्ग संज्ञा की भी ) चाल नहीं है--.-खरबूजा धरो है—“खरबूजा धरे हैं? । खरबूजे धरे हैं” नहीं । स्त्रीलिङ्ग में परिवर्तन संज्ञा का होता है; पर ऐसे झाकारान्त शब्द पुलिङ्ग बहुवचन में नहीं बदलते । “एकु लरिकी हैं। और चारि लरिका हैं”। “तरिके नहीं । ये प्रादेशिक भेद हैं । आप राष्ट्रभाषा का रूप देखें । कहा जा रहा था कि ‘क’ र ‘न' संबन्ध-प्रत्यय ऐसे हैं, जो प्रायः भेदक बनाते हैं । इन के ८का के 'क' जैसे रूप को लोग विभक्ति समझते थे और बिंभक्ति के रे ‘ने’ कोई जानता ही न था ! पहले यह सब बतलाया जा चुका है । कभी-कभी ‘क’ प्रत्यय अर्थ-विशेष में भी होता है ---माई का घर-- ‘मायका' । माईक' में पुंविभक्ति और ई’ को ‘य' । पीहर सामासिक शब्द है--पिता का घर - पीहर' | 'पिता' के ‘ता' का लोप और ‘पि’ को ‘पी'।

  • नैहर भी सामासिक है। ज्ञाति' कहते हैं बन्धु-बान्धवों को---ज्ञातयो

बन्धुवः' । 'जाति' पृथक शब्द है । ज्ञातिगृह’>'नैहर' । ज्ञाति>माइ> नै । ‘घर> 'हर' । मायका, पहिर, नैहर शब्द समानार्थक हैं; पर ‘मायका' तद्धित, शैष दोनों सामासिक ।। संबन्ध-विभक्ति और संबन्ध-प्रत्यय की उत्पत्ति अब यह भी देख लेना चाहिए कि वे संबन्ध-प्रत्यय और संबन्ध-विभक्ति कैसे बचे । संस्कृत के १-राजनीतिकः पन्थाः २–राजनीतिकी वार्ता हिन्दी में हो गए- १-राजनीति का पन्थ २–राजनीति की बात ‘पन्थ' के अनुसार ‘का' और 'राजनीति' के अनुसार 'की' । विसर्गों का (पुल्लिङ्ग अकारान्त के प्रथमा---एकवचन का ) विकास हिन्दी की पुविभक्ति