पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३४९

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है ही–बन ही गई है। सो, यहीं ( ‘राजनीतिकः पन्थाः ' ) से हिन्दी ने ‘क’ को अलग कर के अपना संबन्ध-प्रत्यय बना लिया और फिर राजाकर घर ‘महात्मा का घर' आदि सब इस का प्रयोग' ‘भेदक' ( कहीं-कहीं विशेषण भी ) बनाने में । इसी ‘क’ प्रत्यय को “के विभक्ति के रूप में भी हिन्दी मे कर लिया है, जो सदा एकरूप रहती है-“सीता के चार गौएँ हैं । ‘क’ तद्धित-प्रत्यय से ‘के’ विभक्ति कैसे बनी, सो भी सुनिए। संस्कृत के- हरेहम् , कवेवता श्रादि में जो ‘ए’ हिन्दी ने देखा, तो काम की चीज समझ कर निकाल लिया और वर्ण-व्यत्यय से ‘एर' को 'रे' कर लिया; जैसे कि “बालकेन' से

  • इन’ अलग कर के और वर्ण-व्यत्यय तथा सन्धि कर के 'ने' कर्ता कारक की

विभक्ति बनाई। ‘से में की लाइन पर 'ने' कर्ता कारक की विभक्ति और ‘२’ संबन्ध-विभक्ति--तेरे एक पुत्र हु’ ‘मेरे चार पुत्र हुए 'तेरे चार लड़कियाँ हुई। संस्कृत ‘तव' की ही तरह हिन्दी 'तेरे' एकरूप रहे गा । परन्तु ‘भेद्य' के संबन्ध में कोई विशेष बात कहने के लिए ‘रामके लड़के पढ़ते हैं रामकी लड़की पढ़ती है। ये संबन्ध-प्रत्यय देख कर २' विभक्ति ने

  • संबन्ध-प्रत्यय भी दे दिया, जो भेद्य के अनुसार रूप बदलता है--तेरा,

तेरे, ते । “मा' यानी विभक्ति '२’ रूप नहीं बदलती; पर उस का अपत्य ( प्रत्यय } २' पुंविभक्ति ‘अ’ के साथ लग कर रूई बदलता है---तेरा, तेरे, तेरी । साताएँ रूप नहीं बदलतीं । भारत की किसी स्त्री ने हैट नहीं लगाया; साड़ी छोड़ी नहीं। परन्तु इसके पुत्र तो रंग बदलते ही हैं ! यही स्थिति रे' विभक्ति और उस से बने र प्रत्यय की है। बंगाल में प्रत्यय नहीं, विभक्ति ही चलती है और वहाँ वर्ण-व्यत्यय भी नहीं हुश्रा---एर विभक्ति---‘रामेर गाथा' ( राम की गाथा ) और रामेर नित्यकर्म ( राम का नित्यकर्म }। सर्वत्र “रामेर’ | कहीं 'र' ही रह गया; पर उस का प्रयोग भी विभक्ति-रूप से---सीतार गाथा’ ( सीता की गाथा ) और 'सीतार वनवास' ( सीता का वनवास )। यानी “एर' तथा 'र' बंगाल में एक-स । वहाँ ‘रा २’ ‘री' नहीं । इस का कारण है। पूरबी हिन्दी-बोलियों में संज्ञा-विभक्ति 'अ' नहीं है---‘रामक आयसु' ‘रामक प्रान भरत-लछिमन' । स्त्रीलिङ्ग मैं अवश्य 'इ' या ‘ई होती जाती है---‘तुम्हारि बात' । परन्तु तुम्हार सब