पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३५

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सभा की सभी प्रकाशनों और पत्र-व्यवहार में होता आया है। वाजपेयी जी सभा द्वारा स्वीकृत इस वर्तनी को अपने व्याकरवा ग्रंथ के लिये पूर्णतः स्वीकार नहीं कर सके । अंत में ४ नवंबर १६५७ को व्याकरण-परामर्श-मंडल में निश्चय हुआ। कि हिंदी शब्दानुशासन' ऊा प्रकाशन लेखक पं० वाजपेयी की थी शैली, सिद्धांत और वर्तनी के अनुरूप हो और प्रकाशकीय बक्तव्य में इसका स्पष्टी- करा कर दिया जाय । अस्तु, प्रस्तुत ग्रंथ में शैली, सिद्धांत और वर्तनी का मूल उत्तरदायित्व लेखक का है। यह लिखकर सभा अपने उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं होना चाहती । वास्तव में वाजपेयी जी तथा सभा के दृष्टिकोण में अंतर बहुत अधिक नहीं है। सभा अपने मान्य लेखकों का संमान करती श्राई है और आज भी करती है, इसीलिए उस थोड़े अंतर को भी सुभा ने स्वीकार कर लिया है। इस ग्रंथ के प्रणयन में मूल रक शक्ति डा० अमरनाथ झा आज हमारे बीच नहीं हैं । अकाल में ही कालदेव के यहाँ से उन्हें बुलावा आ गया जिससे संपूर्ण हिंदी संसार और सभा विशेषरूप से उनके अनुभव और पथ-प्रदर्शन से वंचित रही | श्रीज डा० अमरनाथ झा इस ग्रंथ को प्रकाशित देखकर कितने प्रसन्न होते उसकी कल्पना मात्र की जा सकती हैं । फिर भी उनका आशीर्वाद सभा तथा इस व्याकरण को प्राप्त है इसझा हमें पूरा विश्वास है । व्याकरण-योजना-मंडल और व्याकरण-परामर्श-मंडल के संयोजक १० करुणपति त्रिपाठी ने बड़ी तत्परता और मनोयोग से व्याकरण के प्रयन में अपना अमूल्य समय और विचारपूर्ण सुझाव दिया । स्वयं अस्वस्थ रहते हुए भी उन्होंने व्याकरण के प्रणयन और प्रकाशने में रुचि रखी जिसके लिये सभा उनकी ऋणी है। प्रस्तुत व्याकरा के लेखक पं० किशोरीदास बाजपेशी के अध्ययन और मौलिक चिंतन का लेखाजोखा तो प्रस्तुत ग्रंथ ही प्रमाणित कर देगा, परंतु उनके धैर्य और संयम, परिश्रम और लगन की जितनी भी प्रशंसा की जाय वह थोड़ी है । समा उनके तत्पर सहयोग के लिये उनकै आभारी है। अंत में सभी व्याकरण-परामर्श-मंडल के सदस्यों के प्रति आभार प्रदर्शन झरना अपना कर्तव्य समझती है जिन्होंने अपना अमूल्य समय देकर अपनी सुमतियाँ और सुझाव दिए । श्री डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी, श्री पं० विश्वनाथ