पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(३१०)

है। उत्’ उपसर्ग की जगह अपना ‘उ' उपसर्ग और संस्कृत ‘मूल' की जगह अपना जड़ । मूलतः उत्पाटन-उन्मूलन और जड़ से उखड़ना- ‘उजड़ना । इसी के परिवार में ऊबड़’ ‘उजाड़ श्रादि हैं । थों अपने शब्दों का प्रयोग संस्कृत के अनुकरण पर है। ‘राज ' तथा राज महल' भी संस्कृत-पद्धति पर हैं; पूर्व पद संस्कृत के और उत्तर पद दूसरे । राजा मंडी में निर्माण-पद्धति अपनी है। राजा की मंडी’---राजा-मंडी' । हिन्दी में 'राजा' शब्द चलता है । उसी से मंडी का समास । 'पितावचन' आदि तुलसी-प्रयोग भी इसी तरह के हैं। पितृ- वचन संस्कृत तद्रूप भी हिन्दी में चलता है; परन्तु पिता-वचन' या पिता वचन' को अशुद्ध नहीं कहा जा सकता; प्रत्युत पिता-बचन' ही हिन्दी का

  • अपना' शब्द है । ‘पितृवचन' संस्कृत का तद्रूप प्रयोग है। सूरज तथा

‘सूर्य की तरह ही ‘पितावचन' छौर ‘पितृवचन' समझिए । समास तो अशिक्षित जन भी अपनी भाषा में करते रहते हैं। जिन लोगों ने यह नहीं पढ़ा कि ‘पिता' शब्द का मूल रूप संस्कृत में पितृ है, वे *पितृ-वचन' क्या बोले-समझे गे ? परन्तु पिता' तथा 'वचन' सब समझते हैं और पिताबन्चन' बोल-समझ लेते हैं । इसी तरह 'नेतागीरी' तद्धित हैं। 'नेता' से ‘गीरी' प्रत्यय है। नेतृगण’ लोग न समझ पाएँगे, “नेता-गण- झट समझ लेंगे | हम ‘नेतृगण’ को इटा नहीं रहे हैं; कोई इदा नहीं सकता | हमारा तो इतना भर कहना है कि नेता-” हिन्दी में शुद्ध प्रयोग है। हिन्दी में नेता' शब्द गृहीत है, 'नेतृ' नहीं । नेतृबृन्द” भी समझ लेते हैं, जो कि कुछ संस्कृत से परिचित हैं। हिन्दी का प्रसिद्ध शब्द ‘मातेश्वरी' भी ( हिन्दी की ) प्रकृति स्पष्ट करता है। मातेश्वरी, भागीरथी' । यहाँ माता के साथ 'ईश्वरी' का समास है । शब्द संस्कृत के, सन्धि संस्कृत की, प्रकृति अपनी । ‘मातेश्वरी' सम्बोधन संस्कृत में न हो गा । इसी तरह ‘विद्यार्थि-परिषद संस्कृत और विद्यार्थी-परिषद हिन्दी का समस्त पद है। हिन्दी में विद्यार्थी शब्द है--विद्यार्थि’ नहीं । इसी लिए हिन्दी में ‘छन्दाव’ चलता है, संस्कृत में 'छन्दोऽर्णव' । 'नेतृ-प्रेरित जनता की जगह 'नेता-प्रेरित' अच्छा ।। हिन्दी में संसद-सदस्य' लिखना अधिक अच्छा; संससदस्य' वैसा नहीं। कारण, ‘संसद्' शब्द के ‘दु’ को ‘तु' विशेष स्थिति में हो जाना