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उद्देश्य और विधेय

वाक्य में उद्देश्य और विधेय, ये दो ही मुख्य तत्त्व हैं। किसी के बारे में हम कुछ कहते हैं । जिस के बारे में कुछ कहते हैं, वह ज्ञात रहता है--- ‘उद्देश्य है। उस के बारे में जो कुछ कहा जाता है-~-जेताया जाता है. वह हमें पहले से अज्ञात रहता है; इसी लिए वह ‘विधेय' या प्रतिपाद्य है । उद्देश्य और विधेय को ही संस्कृत में अनुवाद्य’ और ‘विधेय' कहते हैं । पहले उद्देश्य बोला जाता है, तब ‘विधेय' आता है। यह स्वाभाविक स्थिति है--राम सोता है' या 'राम चौर है। ‘सोना' विधेय है और राम का ‘चोर होना' विधेय है। 'चोर' विधेय-विशेषण है; इसी लिए पर-प्रयोग है। इसे उलट कर चोर राम है' साधारण स्थिति में नहीं कर सकते। उद्देश्य पर अधिक जोर देना हो, तो हो भी जाए गा---‘चोर तो है मोहन और दण्ड मिल रहा है सोहन को ! परन्तु यदि ऐसी स्थिति न हो, तो उद्देश्य का पूर्व- प्रयोग ही हो गा, विधेय की पर-प्रयोग । कहा है-

  • अनुवाद्यमनुक्त्वैव न विधेयमुदीरयेत्

उद्देश्य को उच्चारण किए बिना, पहले ही, विधेय का उच्चारण न कर देना चाहिए। यह सामान्य विधि है। अनुवाद्य' इस लिए उद्देश्य को कहते हैं क्यों कि वह ज्ञात है। भूमि सयन, बलकल बसन, असन कन्द फल मूल | ‘सूयन' ( शयन ) यहाँ भाववाचक संज्ञा नहीं, अधिकरणा-प्रधान शब्द है---‘शय्या' का पर्याय । इसी तरह ‘असन' ( अशन ) भी ‘कर्मणि प्रत्यय से हैं --राजजनोचित भोज्य सामग्री का अभिधायक है। बन में भूमि ही शय्या हो गी, वल्कल' ही परिधान ह गे और छन्द-मूल ही वहाँ भोजन हो गः । पहले उद्देश्य, तब विधेछ । यदि उपमान- उपमेय भाव हो, रूपक हो, तो फिर क्रम बदल जाएगा । विरह में कहा जा सकता है-*शय्या काँटों से भरी भूमि हैं अब, भोजन विष है और भवन बन है ।' यहाँ शय्या-श्रादि में कुंटकाकीर्ण-भूमि आदि का आरोप है। ठीक है। यहाँ इस क्रम को उलट नहीं सकते । “मीरा ने कहा--‘लाओ अमृत है विष' । यई प्रयोग गलत है । विष प्रकृत है, जो कि मीरा के सामने लाया गया है। उसे वे अमृत के समान समझ कर ग्रहण कर रही हैं---