पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३८०

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बन जाता है । यहाँ कविकुलगुरु कालिदास ने 'विष’ को पूर्व-प्रयोग किया है, 'अमृत' को उस के अनन्तर । कारण, विष में दो ही स्वर हैं, 'अमृत' में तीन हैं । 'अमृतं वा विषम् में ‘दिष' विधेय होने से परत: प्रयुक्त है। अमृत-गरले एक-सम जिन के' में 'अमृत' का पूर्व प्रयोग ठीक है । ‘आम-इमली’ होगा, “इमली-आस’ नहीं । श्रम' में तीन मात्रा हैं, ‘इमली' में चार ।। “जहाँ सुकं काय समान, तहाँ- रहिर नहिं एक निसा कबहूँ अहाँ लुक' ( शुक ) का पूर्व प्रयोग हैं। ‘काग' में तीन मात्राएँ हैं-

  • मुक’ में दो ही ! यहाँ वक्ता के मन में शुक्र के प्रति अधिक फुकाव भी है।

वह शुक के रूप में अपने जैसे विद्वानों को उपस्थित कर रहा है । इसी लिए सुक' का पूर्व प्रयोग है। वैसे भी शुक' अभ्यर्हित है। "पिक-काक’ की जगह काफपिक' न हो गा; पर बक-हंस' चलता है । 'हंस' में तीन सात्राएँ हैं, बक' में दो ही । अभ्यर्हित होने से हंस-बक' भी कहेंगे । | स्वरों को आपस में भी ध्यान रखा जाता है । अठे-उठे' (राजस्थानी) को ‘उठे-अठे न हो गर । पहले कंठ ( अ ), तब श्रोष्ठ ( उ ) की नंबर है । “इधर-उधर' में भी वही बात है। पहले ‘इ', फिर उ’। य, र, ल, व, यो बर्ण-माला है। इस लिए “यहाँ-वहाँ होता है; उलटे वहाँ- यहाँ नहीं। ‘जहाँ-तहाँ मैं ‘ज' के बाद त' का क्रम है। देख-भाल में *भा की स्थिति बाद में है; पर लड़ना-झगड़ना' में 'ल' का पूर्व-प्रयोग होता है, इस लिए कि “झगड़ना' में वजन बहुत ज्यादा है। पिता और माता' में माता का दर्जा ऊँचा है; इस लिए माता-पिता' जननी-जनक प्रयोग होते हैं । युधिष्ठिर में अधिक स्वर हैं, अर्जुन' में काम; परन्तु युधिष्ठिर' का प्रयोग पहले हो गा--‘युधिष्ठिर और अर्जुन वहाँ से चले इए।' ‘अर्जुन और युधिष्ठिर न हो गा; क्योंकि युधिष्ठिर बड़े हैं, अभ्यर्हित है । द्वन्द्व-समास में भी इसी क्रम-व्यवस्था का ध्यान रखना होता है। | पदों की धूर्वीपर-प्रयोग करने में अर्थ पर भी ध्यान रखना होता है ।

  • सोना-चाँदी’ में सोना' अभ्यर्हित होने के कारण पूर्व प्रयुक्त है। ताँबा

तथा पीतल' समगुरु शब्द हैं; परन्तु वर्णव्यवस्था के अनुसार क्ष’ पहले और

  • बाद में आए गा---'ताँबा-पीतल' ।