पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३८१

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रघु ने अपने रत्न तथा सोना-चाँदी आदि सब कुछ दान कर दिया। यहाँ रत्न' का पूर्व प्रयोग ‘अर्थ’ की दृष्टि से ठीक नहीं है। सोना-चाँदी से रत्न' ज्यादा कीमती चीज है। इस लिए उस का प्रयोग सब के अन्त में होना चाहिए--‘सोना-चाँदी और रत्न-राशि } सोना-चाँदी ही नहीं, रत्न तक दे डालें। तुम्हारा हृदय वज्र है, पत्थर है' यहाँ ‘वज्र' का पूर्व नहीं, पर-प्रयोग चाहिए-पत्थर है, वज्र है। नीचे से ऊपर बढ़ना चाहिए। वज्र' कह दिया, तब ‘पत्थर' कहाँ रहा ! क्रम-विकास से---‘पत्थर है, वज्र है। कहना ठीक । इसी तरह ‘तुम्हारी बातें सुधा और द्राक्षा से भी अधिक मीठी हैं। यहाँ ‘द्राक्षा और सुधा' चाहिए । 'सुधा' कह कर ‘द्राक्षा' कहना ठीक नहीं । अर्थ बड़ी चीज है। यहाँ शब्द-संबन्धी वह गुरु-लघु’ वाली व्यवस्था भी दब जाती है। तुम्हारा हृदय पत्थर है, वज्र है' में पत्थर' अधिक वजन रखता है; फिर भी इस का पूर्व-प्रयोग हो गई। यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ आने-जाने में उसे दो घंटे लग गए। शब्द की दृष्टि से आने-जाने ठीक; परन्तु शब्द और अर्थ में अर्थ बलवत्तर होता है, इस लिए जाने- आने में चाहिए-‘थहाँ से वहाँ ( जाने में }, वहाँ से यहाँ ( श्राने में )। इन सब बातों का व्याकरण से वैसा संबन्ध नहीं है। प्रसंगप्राप्त चर्चा है । व्याकरण की दृष्टि से 'वचन' आदि का भी ध्यान पदों के पूर्वापर-प्रयोग में नियामक होता है- ‘‘वहाँ श्राज हत्याओं तथा नजरबन्दी का जोर है?” बहुवचन को प्रयोग अन्त में होना चाहिए-‘नजरबन्दी तथा हत्या का' । वैसे भी--अर्थ की दृष्टि से--‘हत्या’ का पर-प्रयोग ठीक है । नजर- बन्दी तो मामूली चीज है, हत्या को देखते | नजरबन्दी ही नहीं, हत्याओं का भी जोर है। हत्या से ज्यादा भयानक नजरबन्दी नहीं है।

आवश्यक पदों का प्रयोग

वाक्य में जितने पद आवश्यक हों, उन से न एक कम, न एक अधिक

होना चाहिए। आदमी के एक ही हाथ हो, तो काम ठीक न चले गा और तीन हों, तो भद्दे लगें गे ! जिस पद की उपस्थिति स्वतः किसी कारण से हो जाए, उस का प्रयोग भी अधिक ही समझा जाएगा। कर्ता, कर्म