पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३८९

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किया जा रहा है । ‘श्रान्तर भाषा का अर्थ हुआ ---‘अन्दर की भाषा’--- ‘भीतर की भाषा । क्या मतलब ? 'अन्तर--प्रान्तीय भाषा' तो हिन्दी है ही, साहित्यिक दृष्टिकोण से; परन्तु व्यवहार-दृष्टि से तथा केन्द्रीय सरकार की भाषा होने के कारण यह राष्ट्रभाषा हैं—समूचे राष्ट्र की भाषा, जहाँ बँगला, गुज- राती, मराठी आदि अपनी-अपनी साहित्यिक तथा प्रादेशिक सरकारों की व्यवहार भाषाएँ, पृथक्-पृथक् हैं, वहाँ भी हिन्दी बोली-समझी जाती है; इस लिए राष्ट्रभाषा है । बँगला' “गुजराती' आदि प्रादेशिक भाषाएँ भी राष्ट्र की भाषाएँ हैं---राष्ट्रीय भाषाएँ है, परन्तु प्रदेश--बिशेप से ही उनके नाम हैं । “हिन्द-‘हिन्दी प्रादेशिक नाम नहीं हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य भारत आदि प्रदेशों की यह साहित्यिक भाषा भी है; इस अर्थ में यह अन्तर-प्रान्तीय भाषा है। परन्तु 'अन्तर भाषा' का तो कोई अर्थ ही न हुअा ! “अन्तर” का जो अर्थ है, वह यहाँ अभिप्रेत नहीं । सो, इस तरह के पद वाक्य में न देने चाहिए। जब ‘अन्तर्’ का खण्द्धन ‘अन्तर' के अर्थ में हो गया, तब यह ‘अन्तर' चलाया जाने लगा है। इसी तरह भाषान्तर में ( अर्थान्तर में ) प्रयुज्यमान कोई शब्द अन्यत्र उसी अर्थ में आँखें बन्द कर के न प्रयुक्त कर देना चाहिए। संस्कृत में भ्रभियुक्त’ शब्द अादरणीय अर्थ में भी आता है--‘अच्चा हुरभियुक्ताः-जैसा कि बड़े लोगों ने कहा है। परन्तु हिन्दी में 'अभियुक्त' कहते हैं मुलजिम’ को, जिस पर कोई अपराध-अभियोग लगाया गया हो। इस लिए हिन्दी में किसी आदरणीय के लिए अभियुक्त' कहना कैसा रहे गा ? पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक’ को किसी-किसी प्रादेशिक भाषा में “तंत्री कहते हैं; परन्तु हिन्दी में यह शब्द' वह अर्थ देने में अशक्त है। यहाँ ‘सम्पादक' के लिए तंत्री न लिखा जाए गा | संस्कृत में ‘सम्भावित' का प्रयोग *प्रतिष्ठित' के अर्थ में होता है- सम्भावितस्य चाकीर्तिः । परन्तु हिन्दी में यह शब्द इस अर्थ में न चले गा । अप्रसिद्धार्थ शब्दों का भी प्रयोग ठीक नहीं रहता । 'आकाश को छूते हैं जहाँ ताड़ के पेड़ को *विष्णुपद छूते हैं जहाँ तोड़ के पेड़ न कहा जाए गा। हिन्दी--कविता में विष्णुपद' प्रकाश के लिए प्रयुक्त अवश्य हुश्रा है; परन्तु प्रसिद्ध नहीं है । ‘विष्णुपद का प्रसिद्ध अर्थ “विष्णु भगवान् के चरण' ही सब समझे गे।