पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३९२

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( ३४७ ) इसी तरह शतशः ब्रज-प्रसिद्ध शब्द व्रजभाषा-साहित्य से दूर रखे गए हैं। और उन की जगह अपेक्षाकृत व्यापक शब्द दिए गए हैं। ब्रज में ‘मलूक विशेषण चलता है; पर ब्रजभाषा-साहित्य में यह नहीं लिया गया, ‘सुन्दर श्रादि ही चलते हैं। मेरठ के इधर-उधर ‘झट' के अर्थ में सड़देसी अव्यय प्रसिद्ध है; परन्तु हिन्दी ने ‘झट' रखा, छोटा-सा शब्द, बो संस्कृत ‘झटिति' की तद्भव होने के कारण सर्वत्र सरलता से समझा जा सकता है। सो, साहित्य में अनावश्यक ग्राम्य शब्द से बचना चाहिए। संस्कृत के भी अना- वश्यक क्लिष्ट शब्द न देने चाहिए। इन्द्र के लिए गुनासीर' या 'विडऔजा’ जैसे शब्द किस काम के ? अाफाश के लिए कविता आदि में 'अम्बर है, जाता है; परन्तु अधिक प्रसिद्धि ‘वस्त्र के ही अर्थ में है। तो भी श्लेष में --- “जाड़ा ऐसा है कि सूरज भी श्राठ बजे तक अम्बर में ही मुँह छिपाए रहता है'यो आकाश के लिए अम्बर दिया जाता है। कपड़े के भीतर लोग मुंह छिपाए एड़े रहते हैं न ! परन्तु साधारण अवस्था में अाकाश' ही आए गा, न ‘वियत' न ‘विष्णुपद और न ‘अम्बर' । यही स्थिति अन्य शब्दों की है। अश्लीलता का आभास देने वाले शब्दों से भी बचना चाहिए। परन्तु वैसी कविता आदि में ऐसे शब्द भी लोग देते हैं--‘इक्यावन तो ले चुका, तैयों की कमी नहीं गालिब, एक हूँढो, हजार मिलते हैं । परन्तु साधारणतः ऐसे शब्दों से बचना चाहिए । “चूने की जगह झिरना' या रिसुना क्रिया चले, तो अच्छा-‘बालटी कहीं फूट गई है-- पानी झिरता है' ( या रिसता है' ) । अधिकरणकर्तृक---‘बालटी झिरती हैं, या ‘रिसती है। परन्तु यह सब अन्य विषय है। वाक्य-गठन का प्रकरण है; इस लिए इतना निवेदन किया गया । संस्कृत से या किसी दूसरी भाषा से जब हिन्दी कोई शब्द ग्रहण करती है, तो लिङ्ग-वचन श्रादि की व्यवस्था अपनी रखती है। संस्कृत में ‘दम्पति' का द्विवचन प्रयोग ‘दम्पती' होता है; पर हिन्दी में ‘दम्पति’ मूल शब्द चलता है--संस्कृत की विभक्ति अलरा कर के । चार फुट लंबा बोला जाता है, चार फीट नहीं । विशेषणों का प्रयोग जैसा कि पहले कहा गया है, उद्देश्यात्मक विशेषण पहले आता है, और विधेयात्मक बाद में। कभी-कभी विभिन्न विशेषण भी आपस में विशेष्य--