पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३९३

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विशेषण भाव ग्रहण कर लेते हैं और तब उने का कर्मधारय समास भी हो जाता है। वाक्य में भी यह मूर्ख चोर हैं' । 'मूर्ख' विशेषण है; परन्तु यहाँ विशेष्य के रूप में है। ऐसे ही स्थल में, ऐसे ही विशेषणों को लोग ‘जाति- वाचक संज्ञा' कह देते हैं । वस्तुतः 'मूर्ख' विशेषण है; परन्तु मनुष्य' या अदमी' आदि विशेष्य अनावश्यक समझ कर प्रायः नहीं लगाया जाता ! अनावश्यक इस लिए कि यह बिशेषण पशु-पक्षियों में लग ही नहीं सकता- ‘सम्भवव्यभिचाराभ्यां स्याद् विशेषणमर्थवत्' । यानी जब कोई चीज कहीं सम्भव हो, कभी अलग हो (कभी हो, कभी न हो) तभी विशेषण दिया जाता है। गरम आग' कहना व्यर्थ; क्योंकि आग सदा ही गरम होती है । जलाने वाली अगि' कौन बोलता है ? क्या कोई आग नहीं भी जलाती है ? हाँ, बच्चों को ज्ञान कराने के लिए विधेयात्मक रूप से कहा जा सकता है-*आर जला देती हैं। साधारणतः आग में ऐसे विशेषण न लगे गे; क्योंकि गरमाहट या जलाने की क्रिया उस से व्यभिचरित नहीं - अलग होने वाली चीज नहीं है । जो सुम्भव न हो, वह भी क्या विशेषता ? गरम जल' तो कह सकते हैं; पर गरम बरफ' नहीं । बरफ कभी गरम न हो गी; सुम्भव नहीं । जल बन कर ही गरम हो गी । पशु-पक्षियों में मूर्खता नित्य-प्रसिद्ध है; यद्यपि मनुष्य इन से भी ज्यादा मूर्ख होता है । परन्तु प्रसिद्धि ही तो है । इसी लिए, अव्यभिचरित होने के कारण, पशु-पक्षियों की मूर्खता शब्द का विषय---- विशेष रूप से नहीं बनती। फलतः 'मूर्ख' विशेषण मनुष्य के लिए ही श्राता है---‘लड़का मूर्ख है। 'बैले मूर्ख है' नहीं कहा जाता । यह मूर्ख चोर है' यहाँ 'मूर्ख' विशेष्य रूप से है और उस का 'विधेय- विशेषण चोर' है । 'चोर' भी विशेष्य बन सकता है--यह चोर मूर्ख है'। इस उद्देश्य-विधेय भाव को अच्छी तरह समझ कर ही विशेषणों का पूर्वापर प्रयोग करना चाहिए; अन्यथा अर्थ झ मेले में पड़ जाए गा--अनर्थ भी हो सकता है। समस्त विशेषण देने में सन्धि सोच-समझ कर करनी चाहिए | रामे- श्वर' कृष्णाश्रम' श्रादि में जो सन्धियाँ हैं, हिन्दी की प्रकृति को ग्राह्य हैं---- सब लोग समझ लेते हैं । परन्तु ‘श्रीमच्छङ्कराचार्य या अन्तरसण' जैसी सन्धियाँ हिन्दी की प्रकृति ग्रहण नहीं करती--‘श्रीमान् शंकराचार्य यों असमस्त पद हिन्दी के अधिक अनुकूल हैं । “अन्तरमण’ बुरा लगता है, तो

  • अन्तः-रमण' लिख सकते हैं, पर “अन्तारमण' यहाँ ठीक नहीं ।