पृष्ठ:हिंदी शब्दानुशासन.pdf/३९४

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हम विशेषण की चर्चा कर रहे हैं । ‘संससदस्य पं० बालकृष्ण शर्मा में सन्धियुक्त संससदस्य विशेषण ठीक नहीं | समास तो ठीक; पर सन्धि नहीं ठीक । संस्कृत का नियम है कि समस्त पदों में सन्धि जरूर होनी चाहिए, पर हिन्दी में वैसा नियम नहीं। कांग्रेस-अध्यक्ष राजर्षि टंडन' । 'कांग्न स’ तथा अध्यक्ष में समास होने पर भी सन्धि नहीं । “कांग्र साध्यक्ष बुरा लगता है, जैसे 'बकीलादेश' । “बुकील-आदेश' तो ठीक; पर वकीलादेश १ मतलब यह कि समास में हिन्दी सन्धि की अनिवार्यता स्वीकार नहीं करती । संसद् सब समझते हैं; ‘संस’ में गड़बड़ है। इस लिए सन्धि किए बिना ‘संसद्- सदस्य चाहिए। ‘संसद-चर्चा तो स्पष्ट है; ठीक । संसच्चच' नहीं ठीक । इस तरद्द अन्य शब्दों में स्पष्टता अपेक्षित है । “विद्या-वागीश' आदि में प्रसिद्ध शब्द वागीश' आदि तो यथास्थित चलें गे ही---‘विद्या-वाक्--ईश' जैसे प्रयोग नहीं हो सकते ।। समस्त' विशेषणों में विधेयता का भी ध्यान रखना चाहिए। समास या तद्धित आदि में विधेयता दब जाती है। रावण, मेरा परिचय यही क्वि मैं बालि का पुत्र हूँ । यहाँ 'बलि' पर जोर है ! जिस की काँख में तू दत्रा रहा, उस बालि का मैं पुत्र हूँ। परन्तु समास में---‘मैं बालिपुत्र हूँ' बह बात नहीं रही ! जोर दब गया। इस लिए, ऐसे स्थल में विधेय-विशेषण के भेदक को समास में दबाना न चाहिए । खुले बाक्य में--'मैं बालि का पुत्र हूँ दीक रहे गी । उद्दश्यात्मक विशेषण में भी यही बात है-रावणे, बालि का पुत्र अंगद पाँव जमाए है । कौन आकर उठाए गा ?' यहाँ ‘बालि का यह पुत्र'अगद का विशेषण बहुत अच्छा । सुमास में वह बात न रहे गी-बालि- पुत्र अंगद' में जोर नहीं । ‘सुग्रीव, दशरथ का पुत्र राम कभी असत्य न बोले गा’ यहाँ उद्देश्यात्मक विशेषण ‘दशरथ का पुत्र' बड़ा महत्व रखता है; इस में जोर है । सभास कर देने पर---‘दशरथ-पुत्र राम' में वह चमत्कार नहीं ! दशरथ बँध गया ! जोर जाता रहा ! इसी तरह संस्कृत तद्धित-विशेषण -‘दासरथि राम असत्य न बोले गा–यहाँ भी ‘दशरथ' बदल गया | ‘दशरथ का पुत्र और चीज है---‘दाशरथि' और । यद्यपि अर्थ दोनों का एक ही है; पर कितनी अर्थ-भैद ! ‘राम दशरथ का पुत्र है; मेल करने में कोई धोखा नही'- यहाँ “दशरथ को पुत्र' विधेय रूप से है, जोरदार है। परन्तु यही विधे