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विशेषण और भाववाचक संज्ञा

विशेषण तथा उस से बनी भाववाचक संज्ञा कभी-कभी समान अर्थ में आते हैं-‘मोहन बड़ा पशिड़त है’ और ‘मोहन में बड़ा पाण्डित्य है। दोनों का मतलब एक ही है, फिर भी भाववाचक संज्ञा में अधिक बल है । कभी- कभी तो विशेषण का प्रयोग बड़ी अनर्थ कर देता है-“दस बरस में इस देश में कोई निरक्षर न रहेगा' ! निरक्षर फुहाँ चले जाएँ गे ? कहना चाहिए-‘निरक्षरता कतई न रहे गी ।' कभी-कभी विशेषण तथा भाववाचक संज्ञा में अर्थ भेद भी बहुत ज्यादा हो जाता है-‘मोहन में लियाकत नहीं है।--यानी योग्यता नहीं है और ‘मोहन नालायक है' में कितना अन्तर है ? ‘नालायक' की भाववाचक संज्ञा ‘नालायकी' बने ग–नालियाकत' नहीं । ‘लायक' से लियाकत और ‘नालायक' से 'नालायकी' । शब्द-भेद की जड़ को हमें पता नहीं; फल सामने है । नञ-समास से अर्थ में अन्तर आ जाता है—-'मोहन योग्य नहीं है' और 'मोहन अयोग्य है' में अन्तर है। 'अयोग्य' में अधिक जोर है । कृदन्त शब्दों की स्थिति भिन्न हैं। ‘मोहन विज्ञान की अध्यापक है? की जगह भाववाचक संज्ञा से ---- ‘मोहन विज्ञान की अध्यापन करता है कम हुँचता है । और ‘मोहन वेदों का अध्ययन कर रहा है’ को ‘भोइन वेदों का अध्येता है' कहने में चीज बिगड़ जाए गी । अध्ययन करता है' में क्रिया की प्रधानता है और अध्येता है' में क्रिया गौण, कर्तृत्व प्रधान है ।

शब्दों के गलत रूप

शुद्ध शब्दों के गलत अर्थों में प्रयोग जैसे अनिष्ट हैं, उसी तरह { सही अर्थों में प्रयुक्त होने पर भी ) शब्दों के गलत रूप ग्लानि पैदा करते हैं। इस का मतलब यही है कि शब्द स्वरूपतः शुद्ध होने चाहिए और प्रकृति- प्रत्यय आदि का भी शुद्ध रूप रखना चाहिए। यदि शब्द स्वरूपतः अशुद्ध हुए, तो शुद्ध अर्थ देना भी उन को मूल्य कम कर दे गा । अशुद्ध-न्दी, मैली कुचैली–थाली में कोई बढ़िया खीर आप को परोस कर दे, तो कैसा लगेगा ? शब्द स्वरूपतः अशुद्ध हो जाते हैं भ्रम के कारण । लोग ‘सुश्रूषा' लिख देते हैं---‘शुश्रूषा' को । संस्कृत का ‘सु' उपसर्ग बहुत प्रसिद्ध है। वही ध्यान